Tuesday 27 December 2016

Virah


विरह

नमस्कार मित्रों । नववर्ष दरवाजे पर खड़ा दस्तक दे रहा है । आप सभी को आने वाले नए वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं ।

मित्रों इस बार मैनें हिम्मत करके एक विरह की कविता लिखने का प्रयास किया है, आपको अगर अच्छी लगे तो अपने मत अपने विचारों से मेरा मनोबल जरूर बढ़ाएं और यदि कुछ खामियां भी नजर आये तो मार्गदर्शन करें ।

इस कविता के माध्यम से एक ऐसी युवती की भावनाओं को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हुं जिसका पति हंसी ख़ुशी के कुछ दिन, कुछ महीने साथ साथ बिताने के पश्चात जीविकोपार्जन हेतु वापस परदेस चला जाता है, और जब वो अपने मायके आती है तो उसकी उदास सूरत देखकर जब उसकी सखियां उस से इसका कारण पूछती है तो वो कैसे अपनी पीर उन्हें बताती है ।

इन्ही सब विचारों को एक कविता के माध्यम से शब्दों में बांधने का छोटा सा प्रयास कर रहा हुं, आशा है आपको
पसंद आएगा ।



विरह

सूंदर मुखड़ा क्यों मुरझाया
क्यों कुम्हलाई कोमल काया
इस सूरत पे नहीं भाती है
आँखों में उदासी की छाया,
मुझे सच्ची सच्ची बात बता
क्यों हो गया ऐसा भेष सखी
काहे बिखरे बिखरे केश सखी

आ बैठ तुझे बतलाऊं मैं,
मेरे मन का हाल सुनाऊं मैं,
तुम्हें हर एक पीर बताउंगी,
कुछ तुझसे नहीं छुपाऊं मैं,
मुझे छोड़ अकेली तड़पने को
और लगा कलेजे ठेस सखी
मेरे पिया गए परदेस सखी

हर रंग हुआ बेरंग सखी
वो ले ना गए मुझे संग सखी,
मुझे सूनी सेज चिढ़ाती है
मौसम भी करता है तंग सखी,
श्रृंगार करूं किसकी खातिर,
किसलिए संवारुं केश सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी,




पायल अब छन छन गाती नहीं,
कोयल की राग सुहाती नहीं,
किस से मैं मन की बात करूँ
बैरन निंदिया भी आती नहीं,
दिन बदल गए शामें बदली
बदला सारा परिवेश सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी,

मैं अक्सर सो ना पाती हुं
जब यादों में खो जाती हुं,
विरहा का रोग लगा ऐसा,
मैं खुद ही खुद बतियाती हुं,
बिन उनके लगे जैसे जीवन में,
कुछ भी ना रहा अब शेष सखी,
एक पिया मिलन ही दवा इसकी
है रोग बड़ा ये विशेष सखी,
मेरे पिया गए परदेस सखी ।।

   *   *   *   *

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

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Thursday 15 December 2016

Pita - पिता

पिता - Pita

मनोहर की तबियत कल शाम से ही कुछ नासाज थी फिर भी सुबह अपने नियमित समय पर बिस्तर छोड़ दिया । पत्नी रसोई में सुबह के नाश्ते के साथ साथ दोपहर के खाने की तैयारियों में जुटी थी । बच्चे अपने माता पिता के सुरक्षित साये में आराम की नींद सो रहे थे । आज उनकी स्कूल की भी छुट्टी थी ।

"अरे.... आप इतनी जल्दी क्यों उठ गए ? तबियत खराब है तो थोड़ी देर और सो जाते । आज दफ्तर से छुट्टी ले लीजिए ।" पत्नी ने शिकायती लहजे में मनोहर को समझाया ।

"नहीं रमा, अब मुझे थोड़ा ठीक लग रहा है । एक बार और दवा ले लुंगा तो और बेहतर लगने लगेगा । और आज तो ऑफिस जाना बहुत जरुरी है, एक बड़ी पार्टी आने वाली है ।" कहते कहते मनोहर को खांसी आ गयी ।

"लो, आ गयी न खांसी, फिर कहते हो ठीक लग रहा है । पता है, रात भर खांस रहे थे तुम, और हलकी बुखार भी थी । मेरी मानो तो आज आज तुम आराम करो । पार्टी आ रही है तो कोई और नहीं है क्या सँभालने वाला । आप बस फोन करदो ऑफिस में की आप आज नहीं आ रहे हो ।" पत्नी ने जिद्द सी की ।

"अरे नहीं नहीं, मैं ठीक हुं । तुम एक अदरक वाली चाय पिलादो तो खांसी भी काबू में आ जायेगी ।" मजाकिया अंदाज में मनोहर ने कहा और बाथरूम में घुस गया ।

दो बच्चों का पिता मनोहर एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैन का काम करता था । शहर के खर्चो के मुकाबले तनख्वाह ठीक ठाक  थी । थोड़ी जद्दोजहद करके वो किसी तरह गुजारा तो चला रहा था परंतु जिम्मेदारियों के चलते बहुत सी जगहों पर समझौता करना पड़ता था ।

बेटा आठवीं कक्षा में पढता था और बेटी छठवीं में । शहरो में पढाई भी तो महंगी होती है । स्कूल की फीस, ट्यूशन और कॉपी किताबों के खर्च अलग से । फिर कभी कभी कुछ अन्य पारिवारिक या स्वास्थ्य सम्बंधित खर्चे भी आ जाते । उसने पूरी जिम्मेदारी से हर स्तिथि से तालमेल बैठा रखा था ।

एक जिम्मेदार पिता की तरह अपनी कई इच्छाओं के साथ समझौता करके बच्चों की हर जायज इच्छाएं पूर्ण करता था ।




पत्नी कहते कहते थक गयी की एक जोड़ी कपडे बनवा लो, परंतु उसका यही जवाब होता था कि मेरे पास जरुरत के कपड़े हैं ना । इस बार तो तुम्हारे लिए एक साड़ी लानी है, इस बार बबलू को नए जुते दिलाने है या पिंकी के लिए ड्रेस लेनी है ।

उसकी ऑफिस घर से काफी दूर थी । रोज सुबह 9 बजे की बस से जाता था और शाम को 8 बजे वापस आता । फिर पत्नी और बच्चों के साथ अपनी दिनभर की थकान भुलाकर हंसी ठिठोली करता, बच्चों को पढ़ाता ।

अपनी ऑफिस की परेशानियों को परिवार के सामने कभी भी जाहिर नहीं होने देता । शायद संसार का हर पिता इस विधा में माहिर होता है कि हजारों परेशानियों के बावजूद बच्चों के सामने अपने चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देता है ।

कल शाम को भी जब मनोहर ऑफिस से आया था तो चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान थी । वो तो पिंकी ने जब उसका हाथ पकड़ा तो बोली, पप्पा आपका हाथ गरम क्यूं है ।

कुछ नहीं बेटा ऐसे ही, थोड़ा थक गया हूँ और बाहर से आया हुं ना इसलिए गरम लग रहा है । उसने पिंकी को गोद में लेते हुए कहा ।

फिर रोजमर्रा की तरह जब बबलू और पिंकी मनोहर के साथ मस्ती कर रहे थे तो रमा ने कहा था । चलो बच्चों, अब सो जाओ और पापा को भी आराम करने दो, पापा को बुखार है ना ।

रमा ने उसको दवा दी साथ ही खांसी के लिए काढ़ा भी बनाकर दिया और ये हिदायत भी कि "कल पुरे दिन घर पर आराम करना, अगर तबियत ठीक ना हो तो ।" परंतु वो तो हमेशा की तरह अपने समय पर ही उठ गया था ।

जब तक वो नहाकर आया रमा चाय बना चुकी थी । दोनों चाय पीते हुए बच्चों के भविष्य के बारे में बातें करने लगे । बात बात में रमा ने फिर शिकायत कर दी "आप हमेशा मेरी और बच्चों की फिक्र करते रहते हो, कुछ अपनी सेहत का भी तो थोड़ा ध्यान रखो । बुखार है फिर भी जिद कर रहे हो ऑफिस जाने की, आज आज नहीं जाओगे तो क्या आफत आ जायेगी ।"

"तुम भी रमा कमाल करती हो, थोड़ी सी जुकाम ही तो है, ठीक हो जायेगी । तुम्हारे हाथ की अदरक वाली चाय रामबाण का काम करेगी, देख लेना शाम तक जुकाम फुर्र हो जायेगी ।"

"और तुम सबकी फ़िक्र मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा ।" फिर वो बच्चों की तरफ देखते हुए बोला "आखिर ये ही तो अपनी दुनिया है ।"

साढ़े आठ बजने को थे, बच्चे अब भी सो रहे थे । गांधी जयंती की छुट्टी ना होती तो कब के स्कूल जा चुके होते ।

"बच्चों को आज आराम से सोने दो, रोज जल्दी उठते है । लाओ टिफिन दे दो, बस का समय हो रहा है ।" मनोहर ने कहा और कपड़े बदलने चला गया ।

तैयार हो कर मनोहर ने अपनी बैग व टिफिन लिया और प्यार से बबलू और पिंकी के सर को सहलाकर ऑफिस के लिये निकल पड़ा ।

रमा उसको जाते देखते हुए सोच रही थी.... मैं जानती हुं मनोहर कि छुट्टी लेकर तुम एक दिन की तनख्वाह की कटौती नहीं करवाना चाहते । कुछ वर्षों पहले तक तो तुम मुझे सिनेमा दिखाने के लिए भी छुट्टी ले लिया करते थे, मगर आज खुद की तबियत खराब है फिर भी परिवार की खातिर उसे नजरअंदाज कर जाते हो । तब के और आज के मनोहर में कितना बदलाव आ गया है । स्वछंद उड़ने वाला एक लड़का आज कितना जिम्मेदार हो गया है । अपने सपनों को दरकिनार कर बच्चों के भविष्य के सपने देख रहा है । अपने शौक दफ्न करके बच्चों के शौक पुरे कर रहा है । कल का एक लापरवाह शख्स आज परवाह करना सीख गया है । क्योंकि कल का वो आजाद पंछी आज पिता जो बन गया है ।
         * * * *

आपको ये कहानी कैसी लगी, आशा है आपको पसंद आएगी । बताना जरूर । अभी के लिए नमस्ते मित्रों । जल्द ही फिर मुलाकात होगी ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









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Monday 21 November 2016

रिस्की है भाई

रिस्की है भाई नमस्कार मित्रों । रिस्क या जोखिम, एक ऐसी चीज है जिस से हर कोई बचना चाहता है, लेकिन ये किसी न किसी रूप में बीच में आ ही जाती है । वैसे आप भी जानते ही हैं कि रिस्क तो पग पग पर है । पल पल रिस्की है । और देखा जाए तो ये बात भी सही है कि रिस्क नहीं लेना ही सबसे बड़ी रिस्क होती है । मैंने भी सोचा कि चलो इसी शब्द पर कुछ लिखने की रिस्क ले लेता हुं, इसी आशा के साथ कि इस रचना को भी आप उतना ही पसंद करेंगे जितना मेरी पूर्व की रचनाओं को किया । अपने विचार जरूर बताएं । * * * * * रिस्की है भाई इस युग का हर ताना बाना रिस्की है, संभल के रहना यार ज़माना रिस्की है, सबसे बड़ी है रिस्क एक ही जीवन में, रिस्क उठाने से घबराना रिस्की है, कभी भरोसा आँख मूंद कर मत करना, सब को दिल का हाल बताना रिस्की है, मौका पाकर लोग घोम्प देते हैं खंजर हर एक को यूं गले लगाना रिस्की है, रहे पांव अपने चादर के अंदर ही, क्योंकि झूठी शान दिखाना रिस्की है, कुछ न मिलेगा भैया देखा देखी में हद से ज्यादा पंख फैलाना रिस्की है, गम ओ ख़ुशी में बहते है बह जाने दो, नयन-झील में आंसू दबाना रिस्की है, खुशियां जितनी बांटें बढ़ती जाती है दर्द मगर अपनों से छुपाना रिस्की है, ताकत पा कर जो आँखें दिखलाते हैं, ऐसे नेता चुन कर लाना रिस्की है, सनद रहे कि आस्तीन के सांपों को, भर भर प्याले दूध पिलाना रिस्की है, हस्ताक्षर करने की भी जो मांगे टॉफ़ी उस घूसखोर को बाबू बनाना रिस्की है, ना जाने कब वक्त की लाठी पड़ जाए दो नंबर का माल दबाना रिस्की है, महज खबर में आने को, किसी पर भी बिन सोचे इल्जाम लगाना रिस्की है, गर मौसम हो बिगड़ा और निरंकुश सा तब लहरों पर नाव चलाना रिस्की है, माना न्योता अरसे बाद मिला लेकिन ठूंस ठूंस रसगुल्ले खाना रिस्की है, वजन बढ़ गया लगी सेहत की चिंता पर, इस चिंता में रोटी ना खाना रिस्की है, घर पर रहना रिस्की है कहीं आना जाना रिस्की है, नहीं बोलना रिस्की है ज्यादा बतियाना रिस्की है कोई थोड़ी मदद करो अब आम आदमी करे तो क्या हवा भी रिस्की दवा भी रिस्की पानी ओ खाना रिस्की है, इस युग का हर ताना बाना रिस्की है, संभल के रहना यार ज़माना रिस्की है।। * * * * मैंने कहीं पढ़ा था कि यदि आप अपने हर कार्य में ईमानदार हैं तो आप को कभी भी भय का अनुभव नहीं होगा । अभी उन लोगों की नींदें उड़ गयी है जिन्होंने बेईमानी का अनगिनत खजाना देश और सरकार से छुपा के रखा था, वो पड़ा पड़ा ही मात्र एक साधारण कागज़ बन कर रह गया । दोस्तों, देश की सेवा में हमेशा अपना योगदान देते रहें, यकीन मानिए भारत निश्चित ही एक बार फिर सोने की चिड़िया बन उठेगा । जय हिंद *शिव शर्मा की कलम से***










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Sunday 30 October 2016

Ek Diwali Aisi Bhi


एक दिवाली ऐसी भी



नमस्कार मित्रों । दीपावली के पावन पर्व की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं ।

अंधकार को मिटा देने वाला त्योंहार है दिवाली । मैं कामना करूंगा कि ईश्वर आपके जीवन के हर अन्धकार को दूर कर खुशियों की रौशनी से रोशन कर दे ।

दीपावली का ये पावन पर्व हर तरह के ईर्ष्या द्वेष भुलाकर, हर एक की भूलों को क्षमा कर के प्रेम और स्नेह बढ़ाने का पर्व है और हमें यही प्रेरणा देता है इस उत्सव का आनंद हम सबके साथ मिलकर उठायें । इसी विषय पर एक छोटी सी कविता एक दिवाली ऐसी भी लिखी है, इसी आशा के साथ कि इस कविता को भी मेरी पहले की रचनाओं तरह आपका भरपूर स्नेहाशीष मिलेगा ।


एक दिवाली ऐसी भी


हिलमिल सारे ख़ुशी मनाएं
नन्हे बच्चों जैसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी
अपने मन के भितर हो कुछ
जगमग ज्योत दीये सी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी

मन के सारे मैल मिटायें
स्नेह बढ़ाएं मेल बढ़ाएं
छोटा बङा नहीं है कोई
प्रेम से सबको गले लगाएं
फिर से एक बनायें टोली
अपने बचपन जैसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी




ऊंच नीच की बातें छोड़ो
दिल से दिल के रिश्ते जोड़ो
मुहब्बतों के बीच जो आये
सारी वो दीवारें तोड़ो
अच्छी नहीं है दिल की दुरी
हो चाहे वो कैसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी

मैं को छोड़ो हम बन जाओ
उत्सव का आनंद उठाओ
स्नेह प्रेम की बाती लेकर
अपनेपन के दीप जलाओ
दूर भगाओ ईर्ष्या नफरत
ऐसी भी और वैसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी

ऐसी हो अबकी दिवाली
हर चेहरे पर हो खुशहाली
दीप ज्योति से शरमा जाए
रात मावस की काली काली
अपनों के संग संग मुस्कायें
अपने प्रिय पड़ौसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी

माना सस्ते में मिलता है
जगमग जगमग भी करता है
लेकिन अपनी जेब काट
कोई दूजा अपना घर भरता है
यकीं करो ज्यादा चमकेगी
झिलमिल लड़ियां देसी भी
आओ अबकी बार मनाएं
एक दिवाली ऐसी भी ।।

    **    **    **

पुनः आप सबको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं । उत्सव का पूर्ण आनंद उठायें, उमंग भरी सुरक्षित दिवाली मनाएं ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***

Friday 21 October 2016

Kaash - काश


काश.....



सुनील मेज पर सर झुकाये कुछ ग़मगीन मुद्रा में बैठा था । मैंने आवाज दी तो उसने सर उठाकर मेरी तरफ देखा ।

"क्या बात है भाई, कुछ परेशान से लग रहे हो । सब ठीक है ना ?" मैंने उससे हाथ मिलाते हुए पूछा ।

"हां यार ठीक है सब, बस थोड़ा सा पत्नी की तबियत को लेकर चिंतित था । काश...... उस वक्त तेरी बात मान कर उसे शहर के डॉक्टर को दिखा दिया होता, तो आज ये स्तिथि ना होती ।" सुनील के स्वर से चिंता के भाव स्पष्ट पता चल रहे थे ।

उसकी पत्नी अक्सर पेट दर्द की शिकायत करती रहती थी और वो बिना डॉक्टर की सलाह के ही दवा की दुकान से दवा ले जाता था । मुझे भी तब पता चला था जब आज से करीब तीन महीने पहले वो वहीं दवाई खरीदते हुए मिल गया था जहां मैं भी कोई दवा लेने को गया था ।

तब मैंने उसे कहा था कि भाभी को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दे एक बार । युं बिना रोग जाने दवा लेना सही नहीं है । लेकिन लापरवाही या किसी और कारण के चलते शायद वो उसे डॉक्टर के पास नहीं ले गया था ।

"क्यों क्या हुआ, भाभी ठीक तो है ना । तुमने डॉक्टर को दिखाया क्या उन्हें ?" मैंने एक साथ दो तीन सवाल पूछ डाले ।

"हां हां वैसे तो ठीक है परंतु"

"परंतु क्या" मैंने बीच में ही उसकी बात काट कर पूछ लिया ।

"वो डॉक्टर ने कहा है कि पत्नी के पेट में पथरी है जो अब दवाओं से ठीक होनी मुश्किल है, ऑपरेशन करना होगा । काश, उस वक्त तेरा कहा मान लेता, क्योंकि डॉक्टर ने बताया कि अगर दो तीन महीने पहले जांच हो जाती तो शायद दवा से भी इलाज हो जाता । ऑपरेशन नहीं करवाना पड़ता ।" सुनील एक सांस में बताता चला गया ।

"ओह्ह..... मुझे दुःख है कि भाभी को ऑपरेशन की पीड़ा सहनी पड़ेगी । खैर, जो हो गया सो हो गया लेकिन अब और देर मत करना, जितनी जल्दी हो इलाज करवाओ । और मेरे लायक कोई भी काम हो तो बेझिझक बोलना ।"

"नहीं नहीं, अब कोई देरी नहीं करूंगा भाई, कल बुलाया है डॉक्टर ने । छोटा सा ऑपरेशन है । परसों अस्पताल से छुट्टी भी मिल जायेगी ।"




"मैं तो आज इधर से गुजर रहा था तो सोचा तुमसे मिलता चलुं । आ गया तो पता चला, वर्ना तुम तो शायद बताते भी नहीं ।

अभी तो मैं चलता हूं, तुम चिंता मत करना और मेरी किसी भी तरह की मदद की जरुरत हो तो फ़ोन कर देना" मैंने कुर्सी से उठते हुए उससे कहा ।

फिर उससे विदा लेकर मैं वहां से रुखसत हुआ और पैदल ही घर की तरफ चल पड़ा । सुनील की परेशानी जानकर तकलीफ तो हुई, परंतु इस स्तिथि का वो खुद जिम्मेदार था, और कुछ उसकी पत्नी भी, जो बिना डॉक्टर की सलाह के गलत दवाइयां, जो सुनील मेडिकल वाले से सीधा लाता था, ले लेती थी ।

अनायास ही मेरे दिमाग में खयाल आने लगे कि हमारी एक छोटी सी लापरवाही या अतिरिक्त होशियारी, आगे चल के एक बड़ी मुसीबत का रूप ले लेती है । बाद में हम सोचते हैं कि काश उस वक्त ऐसा कर लिया होता ।

समय रहते उचित निर्णय ना लेने की वजह से हमारे जीवन में ये "काश" कई जगह आ के खड़ा हो जाता है । जैसे सुनील, अगर कुछ समय पहले वो अपनी पत्नी के रोग की किसी अच्छे डॉक्टर से जांच करवा लेता तो उसकी पत्नी ऑपरेशन के दर्द से और खुद सुनील मानसिक परेशानी और बेमतलब के होने वाले खर्च से बच जाते ।

आपने भी देखा होगा कि अक्सर जब परीक्षाएं सर पे आ जाती है तब जा के कई विद्यार्थी हाथों में किताब उठाते हैं । समय रहते तो उन्हें लगता है अभी तो दो महीने पड़े हैं, पढ़ लेंगे । अभी एक महीना बाकि है, पढ़ लेंगे । लेकिन बाद में जब परीक्षा परिणाम अवांछित आता है तब पछताते हैं कि डेढ़ दो महीने युं ही बर्बाद कर दिए थे, "काश" उस वक्त समय का उपयोग कर लेते तो परिणाम अलग ही आता ।

इन उदाहरणों के अलावा और भी सैंकड़ों तरह की बातें, घटनाएं हमारे जीवन में होती है जहां बाद में हमें लगता है कि काश हम पहले वैसा कर लेते तो आज स्तिथि दूसरी होती ।

इसलिए मित्रों कोई भी छोटा या बड़ा मसला, चाहे वो स्वास्थ्य संबंधी हो, चाहे आर्थिक, पारिवारिक या शैक्षणिक या अन्य, उन पर तुरंत विचार करके निर्णय लें । खासतौर पर स्वास्थ्य से संबंधित समस्या को तो बढ़ने ना ही दें । क्योंकि वक्त रहते इलाज ना किया जाए तो घाव नासूर बन जाता है और जीवन पर्यंत पीड़ा देता रहता है ।

अब आपसे विदा चाहूंगा । जल्दी ही फिर मिलने के वादे के साथ । आप सबको दीपावली की अग्रिम शुभकामनाएं । अपना और अपनों का ख़याल रखें ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***








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Monday 17 October 2016

मृत्यु - Mrityu


मृत्यु


नमस्कार मित्रों । एक लंबे अंतराल के बाद आपसे मुलाकात हो रही है । आज आपके समक्ष पेश है श्री प्रदीप माने "आभास" द्वारा रचित एक हृदय स्पर्शी रचना "मृत्यु" । जीवन का अंतिम सच "मृत्यु" ।

जैसा कि आप जानते हैं प्रदीप मूलतः मराठी में लिखते हैं और ये कविता भी इन्होंने मराठी भाषा में ही लिखी थी, और हमारे विशेष अनुरोध पर कुछ और संशोधन करके श्री प्रदीप माने ने इसका हिंदी अनुवाद किया । आशा है इस कविता को आप बेहद पसंद करेंगे ।


मृत्यु

दस्तूर अपना
निभाओगी जरूर
सीमाएं मेरी
बताओगी जरूर
कोई आये ना आये
पर तुम आओगी जरूर
विश्वास है मुझको,
तुम आओगी जरुर...

डुबती नैया से जब
किनारें हो दूर...
हवाएं भी हो,
थमने को मजबूर...
रातों को लगने लगे
जब अंधेरों से डर...
रास्ते हो असहाय और,
मुश्किल हो सफर...
तब कोई साथ ना होगा,
पर तुम मेरा
साथ निभाओगी जरूर,
विश्वास है मुझे,
तुम आओगी जरुर...


मृत्यु





आसमान जब
पिघलने लगे,
धरती जब
फटने लगे,
बोझ हो जाएगी
साँसें धडकनों पर...
फूट फूट रोएगा,
सागर किनारों पर...
लहरें भी किनारों से
किनारा कर लेगी,
तुम मगर मेरी नाव
किनारे लगाओगी जरूर
विश्वास है मुझे
तुम आओगी जरुर...

आकर थाम लोगी
अपनी बाहों में मुझे,
और मुक्त कर दोगी,
सभी बंधनों से मुझे,
आ, बेझिझक मैं भी
तुम्हें बाहों में भर लू...
इस बेवफा जिंदगी से
किनारा कर लू...
मैं तुझे जानता हूं
तेरी आदत पहचानता हुं
कि तेरा जो वादा है सबसे,
तुम निभाओगी जरूर,
विश्वास है मुझे
तुम आओगी जरुर...



मृत्यु


अपना लोगी आकर,
मेरे दुख-दर्द सारे...
बिछा दोगी मेरी
राह में चमकते तारे...
जीवन तो दिव्या स्वप्न है,
तू ही अंतिम वचन है.
जीवन झूठ की परछाई है
मृत्यु, तू ही सच्चाई है,
जिंदगी बेवफा है,
मौत में खरी वफ़ा है,
हां विश्वास है मुझे,
तुम अपनी वफ़ा
निभाओगी जरूर
मुझे अपने गले
लगाओगी जरूर
मैं जानता हुं
तुम आओगी जरूर....

Click here to read "पंख" written by Sri Pradeep Mane



प्रदीप माने "आभास" की रचना










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धन्यवाद
शिव शर्मा


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Monday 26 September 2016

Aatank Ki Aag


आतंक की आ



एक बार फिर दहशतगर्दों ने माँ भारती के सीने को लहूलुहान कर दिया । कायरों ने कश्मीर के उरी में छिपकर हमला किया, हमारे 18 वीर जवान शहीद हो गए ।

वीर शहीदों को मैं नमन करता हुं । हम भारतवासी आपकी शहादत को कभी भुला नहीं पाएंगे ।

हम सब जानते हैं कि ये सब किसकी शह में हो रहा है । पिछले 70 वर्षों से इस नापाक पड़ौसी ने हमें सैंकड़ों जख्म दिए है, जिसकी धरती पर आतंक की फसल उगती है ।

इस नापाक पड़ौसी को कुछ हिदायतें एक कविता के माध्यम से देने की कोशिश कर रहा हुं ।







आतंक की आग

पर इतने भी ना फैलाया करो,
इशारों से समझ जाया करो,

सब्र का बाँध, टूट भी सकता है जनाब,
हद से ज्यादा, ना आजमाया करो,

ये मुल्क हमारा है और हम अमनपसंद,
यहां आतंक की आग ना जलाया करो,

किसी दिन हाथ जला बैठोगे अपने,
चिंगारियों को हवा ना लगाया करो,

अभी भी वक्त है, समझ जाओ,
कोई दवा समझ की भी खाया करो,

अपनी हालत का तुम्हें अंदाजा तो होगा,
बीमार हो, जोखिम ना उठाया करो,

खुलकर जीने दो उन्हें बचपन अपना,
नन्हे हाथों में बंदूकें ना थमाया करो,

ना दो बच्चों को तालीम वहशत की,
इंसानियत का सबक सिखाया करो,

क्या मिलता है तुम्हे मासूम खून बहाके,
कुछ खुदा का ख़ौफ़ भी खाया करो,

जब से जन्मे हो नफ़रतें ही तो की है,
कभी मुहब्बत से भी पेश आया करो,

वार करते हो हमेशा छुपकर पीछे से,
है हिम्मत तो सामने से आया करो,

जो भड़क गए तो चीर डालेंगे तुम्हें,
भारती के बेटों को मत सताया करो ।।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









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Saturday 17 September 2016

Tere Liye - तेरे लिए

तेरे लिए


ओ मेरी अनजानी चाहत
मैं क्या तारीफ़ करूं तेरी,
लगती तुम चाँद का टुकड़ा हो
परियों जैसी सूरत तेरी,
जो मिले इजाज़त तो मन में
कुछ ख्वाब सजा लुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए,

सुंदरता की मूरत हो तुम
मेरे मन मस्तिष्क में छाई हो,
जो एक झलक देखी तेरी
इन आँखों में ही समाई हो,
आँखों में बसा कर रूप तेरा
कोई गीत बना लुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए,

चंचल चंचल आँखें तेरी
सूरत औरों से है न्यारी,
अधर गुलाब की पंखुड़ीयां
बोली कोयल सी है प्यारी,
सागर के थोड़े मोती चुन
इक हार बना दुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए,




तुम खिली चांदनी जैसी हो
शीतल निर्मल अंदाज तेरा,
आवाज तेरी सरगम जैसी
दीवाना है हर साज़ तेरा,
नायाब चुनिंदा गीत ग़ज़ल
दुनिया से छुपा लुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए,

श्रृंगार भी शरमा जाता है
जब तू दुल्हन सी सजती है,
नई राग कोई बन जाती जब
तेरी पायल छम छम बजती है,
पायल की मधुर धुन से कोई
संगीत सजा लुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए,

तुम्हें देख चाँद भी जल जाये
लगता है कोई परी हो तुम,
इस धरती की तो नहीं लगती
शायद नभ से उतरी हो तुम,
कोई नजर ना तुमको लग जाए,
ताबीज बना दुं तेरे लिए,
दिल करता है नीलगगन से
चाँद चुरा लुं तेरे लिए ।।

    **    **    **

Click here to read "इश्क दा रोग" Written by Sri Shiv Sharma

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

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Thursday 15 September 2016

Jo Bhi Hoga Achha Hoga

जो भी होगा अच्छा होगा


नमस्कार मित्रों । एक लंबे अंतराल के पश्चात् आपसे मुखातिब हो रहा हुं एक कविता लेकर ।

जीवन में अक्सर ऐसे दिन भी आ जाते हैं जब निराशा हमें घेर लेती है । हमें यूं लगने लगता है जैसे सब कुछ ख़त्म सा हो गया ।

परंतु इन क्षणों में हमें हार ना मानकर डटकर मुकाबला करना चाहिए परिस्तिथियों का । हम मनुष्य है । ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना । जिसे परवरदिगार ने बल और बुद्धि से नवाजा है । बस खुद पर भरोसा रख कर आगे बढ़ेंगे तो फिर जो भी होगा अच्छा होगा ।

कविता पसंद आये तो अपने विचारों से अवगत अवश्य कराएं ।

जो भी होगा अच्छा होगा


जारी अथक प्रयास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,
खुद पर तुम विश्वास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,

चलते रहता है जो निरंतर
एक दिन मंजिल पा जाता है,
एक एक कदम बढाकर कोई
एवरेस्ट भी चढ़ जाता है,
जज्बा यूं कुछ ख़ास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,
खुद पर तुम विश्वास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,

कुछ भी नहीं है मुश्किल
गर तुम दिल में अपने ठान लो
सब कुछ तेरे वश में होगा
खुद को अगर पहचान लो
कामयाबी की आस रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,
खुद पर तुम विश्वास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,

वक्त बड़ी मनमानी करता
पल में बिगड़ता पल में संभलता
जकड़ के इसको वश में करले
तू चाहे तो सब कर सकता,
वक्त को जरा तराश रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,
खुद पर तुम विश्वास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा,

बस तेरे भले की खातिर जो
दिन रात दुआएं करते है,
तू छू ले शिखर तेरा नाम हो ऊँचा
यही कामना रखते हैं,
उन मात पिता को पास रखो तो
जो भी होगा अच्छा होगा ।।

         * * * *

जय हिंद

Click here to read "पहले तो तुम ऐसे ना थे" Written by Sri Shiv Sharma



*शिव शर्मा की कलम से***









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Thursday 1 September 2016

Waqt to Lagta Hai


वक्त तो लगता है



समझने समझाने में, वक्त तो लगता है,
उलझनें सुलझाने में, वक्त तो लगता है,

क्या देर लगती है किसी के ख़फ़ा हो जाने में,
मगर रुठों को मनाने में, वक्त तो लगता है,

गुजर जाती है एक उम्र कुछ फर्ज निभाने में,
घर को घर बनाने में, वक्त तो लगता है,


वक्त तो लगता है



उनकी शिकायत है कि बड़ी देर से आये हो,
कुछ दूर से आने में, वक्त तो लगता है,





मुरझा जाते हैं चमन पतझड़ की मार से,
बहारों के लौट आने में, वक्त तो लगता है,

मुकद्दर के सिकंदर तो कुछ लोग ही होते है जनाब,
वर्ना कुछ कर दिखाने में, वक्त तो लगता है,

कुम्हला जाता है बदन, धुंधला जाती है नजरें,
जिंदगी को सजाने में, वक्त तो लगता है,


वक्त तो लगता है


बहुत से ख्वाब अक्सर बिखर के रह जाते हैं,
फिर नए सपने सजाने में, वक्त तो लगता है,




मुस्कुराकर चल देते हैं लोग फकत हाथ मिलाकर,
दिलों को मिलाने में, वक्त तो लगता है,

बिछड़ जाते हैं जो साथी दिलों में घर बनाके,
उनकी यादों को भुलाने में, वक्त तो लगता है,

दूरियां तो "शिव" कुछ ही पलों में बढ़ सकती है,
नजदीकियां बढ़ाने में, वक्त तो लगता है ।।


वक्त तो लगता है


      *    *    *    *

Click here to read "आ जाओ भैया" written by Sri Pradeep Mane


जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से***









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Monday 22 August 2016

दूसरा मौका (भाग २) - Doosara Mauka (Part - 2)

दूसरा मौका (भाग २) - Doosara Mauka (Part - 2)


.....अब तक आपने पढ़ा कि मलिक साहब पारीक जी को अच्छी तनख्वाह बढ़ोतरी का सपना दिखाते हैं, और ये जानते हुए भी कि पिछले कई वर्षों से मलिक साहब इसी तरह के सपने दिखा दिखा कर वक्त पर उन्हें टरका देते है, पारीक जी खयालों में डूबे आने वाले भविष्य के ख्वाब देखने लग जाते हैं, लेकिन हकीकतन क्या होता है....

प्रस्तुत है कहानी का दूसरा और अंतिम भाग.......


दूसरा मौका (भाग २)


.......वे जानते है कि यदि सफल होना है तो सबसे पहले खुद पर भरोसा करना जरुरी है । क्योंकि ये कहावत भी एक कटु सत्य है कि दुनिया को जब तक तुमसे काम है तब तक तेरा नाम है, वर्ना दूर से सलाम है ।

लेकिन अधिकतर लोग पारीक जी की श्रेणी वाले ही होते हैं, शायद कुछ जिम्मेदारियां भी उन्हें मजबूर कर देती है कोई जोखिम ना उठाने के लिए, इसलिए वे भी पारीक जी की तरह डरते हैं कि ये नोकरी छोड़ी तो पता नहीं दूसरी वाली नोकरी कैसी होगी । पता नहीं वहां क्या, कैसा और कितना काम होगा । इतनी तनख्वाह मिलेगी भी या नहीं ।

पारीक जी के भी ऐसे ही खयालात थे । वे तो ये भी सोचा करते थे की अगर नई कंपनी वालों को मेरा काम पसंद नहीं आया तो ? उन्होंने दो तीन महीने में मुझे छोड़ दिया तो?

फिर ये खयाल भी आता कि जितना काम मैं करता हुं और अनुभव भी काफी है उसे देखते हुए ये तनख्वाह कम है, शायद इतनी तनख्वाह तो कहीं भी मिल जायेगी, पर...... क्यूं रिस्क लें, पता नहीं...... अंत में फिर वही अनजाना ख़ौफ़ मस्तिष्क पर छा जाता और वो सिर झुकाकर वापिस अपने काम में लग जाते ।


दूसरा मौका


इसी डर का फायदा मलिक साहब जैसे बॉस उठाते रहते हैं, पता नहीं मलिक साहब की तरह के बॉस के पास ऐसी कौनसी छठी इंद्रिय होती है, जो उन्हें सुचना देती रहती है कि ये आदमी डरपोक है, वे उस आदमी का भरपूर इस्तेमाल करते हैं, और पता नहीं कितने पारीक जी इस अनजाने डर के चलते लायक होते हुए भी वो नहीं पा पाते जिनके काबिल वे होते हैं ।

जैसे अभी तेजी का दौर था और मलिक साहब को पारीक जी से काफी काम लेना था, इसलिए उन्होंने पारीक जी को "शानदार इंक्रीमेंट" का लॉलीपॉप थमा दिया था ।  पारीक जी भी तन मन से जुट गए थे कुछ धन प्राप्ति की आस में ।

वो महीना वाकई बड़ा व्यस्तता भरा निकला। शाम को देर तक बिक्री चालू रहती थी । बिल बनवाना, व्यापारियों से तकादा करना, सबका हिसाब रखना इत्यादि पारीक जी ने बखूबी संभाल रखा था ।

इस बीच एक दिन जब मित्रों के साथ बैठे थे तो बात चल पड़ी काम और तनख्वाह की । पारीक जी ने थोड़े दुखी मन से कहा "यार काम तो दिल लगाकर करता हुं, बॉस सराहना भी करते हैं, मगर तनख्वाह और बढ़ोतरी काफी कम है ।"


दूसरा मौका


तब उनके एक मित्र विजय ने उनको कहा, "पारीक जी मेरी कंपनी में आपके लायक एक पद रिक्त है, अगर आप कहें तो आपके लिए बात चलाऊं ? तनख्वाह भी अच्छी खासी मिलेगी, आखिर आप इतने अनुभवी, मेहनती और पढ़े लिखे हैं ।"

लेकिन पारीक जी ने हाथ हिलाकर कहा "नहीं यार विजय, मैं यहीं ठीक हुं ।"

विजय ये नहीं देख पाया था कि पारीक जी के चेहरे पर एक डर सा था । उसने बस इतना ही कहा "देख लीजियेगा, अगर मन बन जाए तो बताना । अच्छी कंपनी है हमारी। और हमारे बड़े साहब काम की क़द्र करने वालों में से है ।" उस वक्त बात आई गई हो गई थी ।

दिन गुजरते गए । इंक्रीमेंट का समय आ गया था । आज पारीक जी का चेहरा खिला हुआ था । सुबह मलिक साहब ने आते ही उनसे स्टाफ की वर्तमान तनख्वाह का विवरण मांगा था, सबका इंक्रीमेंट करने के लिए । पारीक जी सपने देखते हुए और भी तल्लीनता से काम में लग गए ।

शाम को वो वक्त भी आ गया जिसका सबको और खास तौर पर पारीक जी को बेसब्री से इंतजार था, मलिक साहब ने सबको अपने केबिन में बुलाया और बताया,

"मैंने बढ़ती महंगाई और सबके काम के मद्देनजर सभी का वेतन बढ़ाया है । जैसा कि आपको पता ही है कि अगले महीने हमारी कुछ और मशीनें भी आने वाली है । काफी खर्चा होगा । वो भी "हमें" ही देखना है ।" मलिक साहब ने सबकी तरफ चेहरा घुमाकर आगे कहा, " तो मैं उम्मीद करूंगा कि आप सब इस बात को समझते हुए इस इंक्रीमेंट से संतुष्ट होंगे ।" पानी का एक घूंट भर कर मलिक साहब ने कहा "अब आप सब जाइये, कल पारीक जी आपको सबका इंक्रीमेंट बता देंगे ।" सब के जाने के बाद उन्होंने लिस्ट पारीक जी को थमा दी ।


दूसरा मौका


पारीक जी ने बाहर आकर जिज्ञासावश अपने नाम के आगे की रकम देखी, उनके सारे सपने चकनाचूर हो गए, उनकी तो उम्मीदों पर घड़ों पानी गिर गया ।

सिर्फ तीन हजार पांच सौ । उन्होंने आँखे साफ़ करके देखा कि कहीं 8500 तो नहीं है जो उन्हें 3500 दिखाई दे रहे हैं, लेकिन वो तीन हजार पांच सौ ही थे, तो क्या ये पांच सौ ही वो रकम थी जिनके बारे में मलिक साहब उन्हें अकाल्पनिक बता रहे थे । उन्होंने लिस्ट अपनी टेबल की दराज में रखी और आँखें बंद करके कुछ सोचने लगे ।

पिछले वर्ष जब उन्होंने काम बढ़ोतरी के लिए मलिक साहब से बात की थी तो उन्होंने कहा था कि इस बार काफी मंदी थी, अगली बार देखेंगे । पारीक जी ने बॉस से कहा भी था कि सर खर्चे बढ़ते ही जा रहे हैं । मेरे काम से आप संतुष्ट भी है, फिर इतनी कम बढ़ोतरी क्यों ?




तब मालिक साहब ने ये ही बातें तो कही थी कि पारीक जी आप चिंता मत करो, वक्त आने पर मैं अपने आप आपकी तनख्वाह बढ़ा दूंगा । कब आएगा वो वक्त ? पारीक जी ने खुद से ही सवाल किया ।

फिर जैसे उन्होंने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और फ़ोन उठा कर एक फोन लगाया, "हेल्लो विजय, पारीक बोल रहा हुं..........."

पांच सात मिनट बात करके फ़ोन रख कर वे मलिक साहब की केबिन में गए और मलिक साहब का जवाब सुनकर तो हक्के बक्के रह गए ।

उन्होंने जब कहा कि सर इंक्रीमेंट उम्मीद से बहुत कम है, तो मलिक साहब ने पहले तो उनकी दो चार कमियां गिनाई और फिर स्पष्ट कह दिया ।


दूसरा मौका


"इससे ज्यादा मैं और नहीं कर सकता, वैसे भी सबसे ज्यादा आपको ही इंक्रीमेंट दिया है । अब आपकी मर्जी है, आप जो निर्णय लें वो आप पर है परंतु इस बार इस से ज्यादा मैं और कुछ नहीं कर सकता ।" वे जानते थे की हर बार की तरह इस बार भी पारीक जी दो तीन दिन थोड़े से उखड़े से रहेंगे और फिर वापस उसी तरह अपने काम में लगे रहेंगे ।

लेकिन इस बार जो हुआ वो मलिक साहब के लिए भी अप्रत्याशित था । अगले दिन आते ही पारीक जी ने मलिक साहब को 15 दिन के अग्रिम समय के साथ अपना इस्तीफा सौंप दिया ।

मलिक साहब ने स्तिथि भांप कर उन्हें कुछ चिकनी चुपड़ी बातों से लुभाने का प्रयास किया, कुछ डर भी दिखाया कि आजकल जल्दी से दूसरी नोकरी मिलना काफी मुश्किल है, मगर पारीक जी ने सम्मान सहित उन्हें कहा कि नहीं सर, क्षमा कीजिये, पिछले छह वर्षों में मैंने आपकी कंपनी को अपनी पूर्ण सेवाएं दी, लेकिन मैं हर बार अपने आप को ठगा सा ही महसूस करता रहा । आपके साथ मै आगे भी रहना चाहता था परंतु अब शायद मैं यहां काम करूंगा तो भी पूर्ण निष्ठा से नहीं कर पाऊंगा । अतः आप मेरा इस्तीफा स्वीकार कीजिए और बताइये कि अपना काम किसे सौंपूं ।

मलिक साहब की नोकरी छोड़ने के बाद पारीक जी करीब एक महीने बेरोजगार रहे । इस बीच वे विजय की कंपनी में साक्षात्कार दे चुके थे परंतु लगभग 10 दिन बीत चुके थे और वहां से कोई जवाब नहीं मिला । विजय ने बताया था कि उसकी कंपनी के मुखिया कहीं विदेश यात्रा पर गए हुए थे । उनके आने के बाद ही निर्णय होगा ।

पारीक जी को अपनी योग्यता पर पूरा भरोसा था । मालिक साहब को छोड़ने और कुछ दिन घर पर शांति से बैठकर सोचने में उनमें एक जादुई आत्मविश्वास जाग चूका था ।

आज पारीक जी विजय की कंपनी में कार्यरत है । कंपनी के मुखिया ने तुरंत उनका चयन कर लिया था । जैसा विजय ने बताया था बिलकुल वैसा ही था, इस कंपनी में मेहनती और अनुभवी लोगों की काफी क़द्र थी ।


दूसरा मौका


महज तीन वर्षों में कंपनी ने उनकी कार्यक्षमता और कार्यकुशलता को देखते हुए अच्छी तनख्वाह के साथ साथ अच्छी पदोनत्ति भी दी है । उनका जीवन स्तर एकदम से बदल गया है । जीवन में किसी चीज की कमी नहीं है ।

आज रविवार था । पारीक जी आराम कुर्सी पर बैठे सोच रहे थे, विजय और उनके अन्य कई मित्रों ने उन्हें अनेकों नोकरियां सुझाई थी । काश ये हिम्मत पहले कर लेता तो इतने कष्टों वाला समय ना गुजारना पड़ता ।

फिर खुद को ही समझाया, देर आयद दुरुश्त आयद, अच्छा किया कि विजय की बात मान ली, वर्ना आज भी मलिक साहब के साथ ही होता, वर्तमान तनख्वाह से आधी भी वहां नहीं मिल रही होती और वैसे ही मुफलिसी में दिन काट रहा होता ।

आप सोच रहे होंगे कि मलिक साहब का काम किसने संभाला होगा, पारीक जी जैसा आदमी उन्हें मिला होगा या नहीं ।

जी हां, मलिक साहब को पारीक जी जैसे ही दूसरे पारीक जी मिल गए थे । आखिर दुनिया में बेरोजगारों की कमी थोड़े ही है ।

       *    *    *    *


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जय हिंद

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Saturday 20 August 2016

दूसरा मौका (भाग-१)- Doosra Mauka (Part - 1)


दूसरा मौका - Doosara Mauka 

(भाग-)


शाम के सात बजने वाले थे । पारीक जी कंप्यूटर पर किसी व्यापारी का हिसाब बनाने में मशगूल थे तभी उनके बॉस मलिक साहब उनकी टेबल के पास आये और बोले ।

"पारीक जी, इन दिनों काम थोड़ा बढ़ गया है इसलिए आप शाम को थोड़ा ज्यादा देर रुक कर काम को सलटाने की चेष्टा करें । और सुबह भी थोड़ा और जल्दी आने की कोशिश करें ।" मलिक साहब ने लगभग आज्ञा देने वाले अंदाज में अपने अकाउंटेंट पारीक जी से गुजारिश की ।


दूसरा मौका


पारीक जी की इच्छा तो हुई की कह दे रात को भी घर जा के क्या करूंगा, यहीं बैठा काम करता रहूं, मगर उन्होंने शालीनता से जवाब दिया, "हां जी सर, काम तो बढ़ गया है, परंतु आप तो जानते ही हैं कि अभी बच्चों की परीक्षाएं भी चल रही है, उनको भी थोड़ा पढ़ाना पड़ता है । ट्यूशन रख नहीं सकता क्योंकि उनकी फीस मेरे बुते से बाहर है, मेरी तनख्वाह इतनी तो है नहीं कि मैं उन्हें ट्यूशन दिलवा सकुं, और ओवर टाइम का तो अपने यहां रिवाज ही नहीं है ।"

पारीक जी ने एक तीर से दो निशाने साध दिए । प्रत्यक्ष रूप से मना भी नहीं किया और अप्रत्यक्ष रूप में अपनी बात भी कह डाली ।

मलिक साहब ठहरे पुरे व्यापारी, तुरंत उनकी समझ में बात आ गई, थोड़ा सा खांस कर गला साफ़ किया और व्यापारी सुलभ अंदाज में बोले, "आपको क्या लगता है कि मुझे अपने स्टाफ का ध्यान नहीं है, अरे पारीक जी, इस बार के इंक्रीमेंट में आप ही तो मेरी सुचि में सबसे ऊपर हैं, आप ने सोचा ही नहीं होगा कि आपको इस बार कितना इंक्रीमेंट मिलने वाला है ।"

अच्छे पढ़े लिखे पारीक जी पिछले छह वर्षों से मलिक साहब के यहां काम कर रहे थे और ऑफिस का लगभग सारा काम देख लिया करते थे । काम के मुकाबले उनकी तनख्वाह कम थी ये बात वे भी जानते थे और मलिक साहब भी । किसी नामी कंपनी में होते तो यहां से काफी ज्यादा मेहनताना मिलता ।


दूसरा मौका


परंतु मलिक साहब ये भी जानते थे कि पारीक जी किसी तरह का जोखिम उठाने से बड़ा घबराते हैं, ये नोकरी बदलने के बारे में शायद ही कभी सोचेंगे, इसीलिए वे पारीक जी को इतनी ही तनख्वाह देते थे जिस से उनका महीने का राशन पानी चलता रहे ।

पारीक जी को लगा शायद तीर सही निशाने पर लग गया । बात को पुख्ता करने के लिए उन्होंने कहा , "ये आश्वाशन तो आपने पिछले वर्ष भी दिया था सर लेकिन दिया कुछ ख़ास नहीं था । खर्चे दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं सर ।"

पारीक जी ने अपना दुखड़ा सुनाया तो मलिक साहब मुस्कुराये और पारीक जी के कंधे पर हाथ रख कर कहा ।

"पिछले वर्ष कितनी मंदी थी ये आपसे भी नहीं छुपा है पारीक जी, फिर भी मैंने "आपको" इंक्रीमेंट दिया था ।" आपको पर विशेष जोर देकर उन्होंने कहा ।


"लेकिन इस बार देखना आपको यकीन ही नहीं होगा कि मैंने आपके लिए क्या सोच रखा है, बस आप इसी तरह दिल लगा कर काम करते रहिए ।" मलिक साहब बातों में शहद मिश्री घोल कर बोल रहे थे ।
"आखिर इस ऑफिस में आप ही तो मेरे सबसे खास आदमी है, आप हैं तभी तो मुझे पीछे से यहां की कोई चिंता नहीं रहती है, आप तो मेरे पारिवारिक सदस्य जैसे हो गए हैं, चिंता मत कीजिये, मुझे आपका ख्याल है, अभी मैं चलता हूं आप वो कानपुर वाले व्यापारी का हिसाब उनको मेल कर देना ।" और पारीक जी के कंधे को थपथपा कर वे ऑफिस से निकल गए ।

पारीक जी मन ही मन खुश हो गए और अगले महीने होने वाले इंक्रीमेंट के सपने देखने लग गए ।


दूसरा मौका


'पिछली बार आठ हजार रूपयों की बढ़ोतरी की उम्मीद थी लेकिन बढे तीन हजार ही थे । खर्च मगर उसके मुकाबले ज्यादा बढ़ गया था । मलिक साहब इस बार मेरे काम से खुश हैं और बाजार में तेजी भी है, अबकी बार शायद दस हजार तक बढ़ा देंगे । आखिर महंगाई और जिम्मेदारियां भी तो बढ़ गई है ।'

पारीक जी खयाली पुलाव पका रहे थे तभी फ़ोन की घंटी से उनकी तन्द्रा भांग हो गई । कानपूर वाली पार्टी का फ़ोन था । हिसाब के लिए पूछ रहे थे । पारीक जी ने फ़ोन रख कर उनको मेल की और ऑफिस बंद करके घर की तरफ चल पड़े ।

रास्ते में सोचते जा रहे थे दस हजार बढ़ जाए तो कितनी मुश्किलें हल हो सकती है । बहुत सी जिन वस्तुओं के लिए वे अभी मोहताज है वे भी प्राप्त हो सकती है । मलिक साहब बढ़ा देंगे इस बार । वे अपने आपको मन ही मन तसल्ली भी दे रहे थे ।

प्रायः हर नोकरी पेशा व्यक्ति ये ही सोचता रहता है, इसी तरह के ख्वाब देखता रहता है, परंतु काबिल होते हुए भी एक अनजाने ख़ौफ़ "पता नहीं क्या होगा" की वजह से उन सबसे वंचित रह जाते है जिन को पाने के वे अधिकारी होते हैं ।

कुछ लोग जो होशियार होते हैं वे किसी एक खूंटे से बंधे ना रहकर मौके तलाशते रहते हैं और मौका मिलते ही उसको भुना भी लेते हैं । कभी कभी कुछ लोगों का निर्णय गलत भी हो सकता है पर वे जल्दी ही कोई न कोई और मौका ढूंढ ही लेते हैं । वे जानते है कि यदि सफल होना है तो सबसे पहले खुद पर भरोसा करना जरुरी है । क्योंकि ये कहावत भी एक कटु सत्य है कि दुनिया को जब तक तुमसे काम है तब तक तेरा नाम है, वर्ना दूर से सलाम है ।


दूसरा मौका


....क्षमा चाहूंगा मित्रों, कहानी थोड़ी बड़ी हो रही है अतः इसे हम दो भागों में प्रस्तुत करेंगे । उम्मीद है आप नाराज नहीं होंगे । दूसरा भाग कल आपके लिए उपलब्ध रहेगा ।....



धन्यवाद, जय हिंद




*शिव शर्मा की कलम से***






आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

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