Friday 29 December 2017

Mera Gaon - मेरा गांव

मेरा गांव


शहर की भागती दौड़ती जिंदगी, जहां आदमी सुबह से शाम बस भागता रहता है । बमुश्किल कभी फुर्सत के क्षण मिलते हैं, और जब भी शहरी आदमी फुरसत में होता है, अक्सर उसे अपने गांव की याद आ ही जाती है ।

मेरे गांव का सभी लोगों का आपसी अपनापन, उनके बीच होती हंसी ठिठोली, तीखी मीठी नोकझोंक, खेतों में चारा चरते पालतू जानवर, अपनी स्कूल, पुराने सहपाठी, दोस्तों के साथ मस्तियां, सुकून भरी नींद, कुछ ही पलों में वो बहुत कुछ याद कर लेता है ।

गांव में रहते शहर का ख्वाब देखने वाला वही व्यक्ति जब शहर और गांव की तुलना करता है तो शायद यही सोचता होगा कि इस शहर ने उसे युं तो काफी कुछ दिया है, परंतु पीछे भी जीवन की बहुत सी कीमती चीजें, वहीं, गांव में रह गई, जो इस शहर में मिल ही नहीं सकती ।

इसी विषय पर एक कविता लिखने का प्रयास किया है । आशा है, आप सब इसे भी पसंद करेंगे ।





मेरा गांव

शहर जहां कई जगह
अपनी करतूतों पर शर्मिंदा है,
वहीं भोलेपन के माहौल में
मेरा गांव अब भी जिंदा है,

जहां बसता है जीवन
प्रेम स्नेह और अपनापन
एक दूजे के सुख दुख की
लोगों को अब भी फिक्र है
अपने इतिहास और संस्कारों का
हर जुबां पर जिक्र है

शाम को चौपाल पर
वैसा ही जमघट होता है,
गांव गांव में अब भी
एक तालाब एक पनघट होता है,

बैलगाड़ी से खेत जाते किसान
ये दृश्य अब भी आम है,
मुस्कुराती हुई सुबह वहां
वहां इठलाती सी शाम है,

सितारों की रोशनी
बालू रेत पर चमकती है,
मुस्कुराती इतराती चांदनी
चप्पे चप्पे पर विचरती है,
सूर्य की पहली किरण भी शायद
गांव की गलीयों से निकलती है

माना कि शहर में
सैंकड़ों सुविधाएं हैं,
उससे ज्यादा मगर,
अनगिनत दुविधाएं है,

गांव में ताजी खुली हवा है
शहर चारों ओर धुआं धुआं है,
शहरों में बड़े बड़े हस्पताल
नामी गिरामी हकीम है
गांव में हर मर्ज की दवा
वही, चौराहे वाला नीम है,




शहर की भीड़ का आलम
लगता है जैसे कोई मेला है,
फिर भी इस भागते शहर में
हर आदमी अकेला है,
किसी को किसी से जैसे
कोई वास्ता ही नहीं,
और जहां बेधड़क चल सकें
ऐसा कोई रास्ता ही नहीं,

गांव वाले घर के आंगन से छोटा
शहर का फ्लैट है
वहां समय ही समय है
यहां हर वक्त लेट है

वहां सेहत है
यहां हजारों बीमारी है,
यहां की बाइक पर
गांव की साइकिल भारी है,

पड़ौसी अपने पड़ौसी को
नहीं पहचानता है,
और गांव का बच्चा बच्चा
सबको नाम से जानता है

खुशी और गम में
जीवन के हर मौसम में,
हर एक के हर मौके पर
हर कोई साथ है,
मेरे गांव की
यही तो खास बात है ।।

    *    *    *

धन्यवाद दोस्तों । आपको ये कविता कैसी लगी, बताना अवश्य । जल्दी ही फिर मुलाकात होगी ।

जय हिंद

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*शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

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Sunday 26 November 2017

Muskuharat - मुस्कुराहट

मुस्कुराहट


नमस्कार मित्रों, एक बार फिर आपके लिए एक छोटी सी ग़ज़ल ले कर आया हुं । मुझे उम्मीद है कि हर बार की तरह इस बार भी आप इस ग़ज़ल को भी पसंद करेंगे और मुझे और लिखने के लिए प्रेरित करेंगे ।

ग़ज़ल का शीर्षक कुछ समझ में नहीं आ रहा था तभी मैनें गौर किया कि इसे पढ़ते पढ़ते मेरे एक  मित्र के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई थी, अतः मैनें इसका शीर्षक मुस्कुराहट ही रख दिया ।

मुस्कुराहट

सभी को अपना बना लिया मैनें
बस जरा सा मुस्कुरा दिया मैनें

सुनाकर मुहब्बत के कुछ नगमे
हर दिल में घर बना लिया मैनें,

सूरत पे कभी आने ना दिया
दर्द सीने में छुपा लिया मैनें,

कुछ इस कदर समझौते किये
हर एक इल्जाम उठा लिया मैनें,

कुछ कहता तो वे खफा हो जाते
जुबां पे ताला लगा लिया मैनें,

मिले थे ज़ख्म भी दौर ए जिंदगी में
वो वक्त भी हंसकर बिता दिया मैनें,

महफ़िल में मिली जो नजरें उनसे
चैन दिल का गंवा दिया मैनें,

इल्म जरा भी वो कर ना पाए
उनको उन्हीं से चुरा लिया मैनें,

यारों ने जो पूछा राज मेरी खुशी का
नाम उनका बता दिया मैनें,

कभी तन्हाइयां जो डसने बढ़ी
खुद को खुद में छुपा लिया मैनें,

खामोशियों को सिखाने सबक
एक गीत गुनगुना दिया मैनें ।।

**    **    **   **

हमेशा की तरह आपके सुझावों और हौसलाअफजाई का इंतज़ार करूँगा । फिर मिलते हैं जल्दी ही ।

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जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*









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Monday 30 October 2017

वो चार मिनट - (भाग दो)

वो चार मिनट

 (भाग दो)

अब तक आपने पढ़ा की सामने आई हुई गाड़ी से उतरते नकाबपोशों को देखकर संतोष की ड्राइवर ने अपनी गाड़ी पीछे दौड़ाते हुए फैक्ट्री के बंद दरवाजे से टकरा दी । उसके बाद क्या हुआ उसका वृतांत अब....

.....शायद उस चालक और संतोष का वक्त और भाग्य उनका साथ दे रहा था, । तभी तो दरवाजे पर लगा बड़ा वाला ताला भी टूट गया और दरवाजा भी थोड़ा खुल गया ।

खुला दरवाजा देखकर फुर्ती से चालक गाड़ी से उतरा और तुरंत फैक्टरी के अंदर भागा । अंदर जाते ही जोर जोर से पुलिस पुलिस, हेल्प हेल्प चिल्लाकर पुलिस कर्मी और सुरक्षा कर्मियों को आवाज देने लगा ।

तब तक संतोष कार के भीतर ही था । अचानक हुए इस वाकये से वो इतना हकबका गया था, और थोड़ा घबरा भी गया था कि उसको पता ही नहीं चल पाया था कि ड्राइवर कब गाड़ी से उतरा और कब अंदर चला गया था ।

सामने वाली कार और वे तीन नकाबपोश भी तब तक भागते भागते संतोष की गाड़ी के पास आ गए थे । और जब उनकी नजर फैक्टरी के खुले दरवाजे और अंदर होती हलचल पर पड़ी तो वे खुद भी थोड़ा घबरा से गये थे जो उनके हावभाव से साफ झलक रहा था ।

संतोष समझ गया कि हो ना हो ये अपहरणकर्ताओं का ही हमला है और थोड़ा धैर्य से काम लेना है ।

संतोष को ये भी समझ मे आ गया कि ये कोई बड़े गिरोह के सदस्य नहीं हो सकते । क्योंकि अगर बड़े गिरोह से इनका संबंध होता तो बंदूक एक के पास नहीं, सबके पास होती । इस बात ने संतोष का साहस भले ही थोड़ा सा मगर बढ़ा दिया था ।

वे नकाबपोश संतोष की कार की तरफ आए और उस की गाड़ी के दरवाजे पर हाथ मार मार कर संतोष को दरवाजा खोलने का कहने लगे । डर और घबराहट उनके चेहरों पर भी झलक रही थी, शायद वे इस तरह का दुस्साहस पहली बार कर रहे थे ।

वे बार बार फैक्टरी के खुले दरवाजे की तरफ भी सतर्कता वाली नजरें घूम रहे थे । क्योंकि शायद उन्हें पता था कि अंदर भी हथियारबंद पुलिस कर्मी मौजूद है और उनको लेने के देने न पड़ जाए ।

चालक अंदर से अभी भी चिल्ला चिल्ला कर पुलिसकर्मियों और वहां कारखाने में मौजूद कामगारों को आवाजें दे रहा था । भीतर शायद कोई दूसरी कार भी खड़ी थी जिसकी हेड लाइट के आगे हलचल की वजह से उन नकाबपोशों को यूं लग रहा था जैसे अंदर बहुत से लोग इकट्ठा हो गए हों ।

संतोष ने यहां थोड़ी सी समझदारी दिखाई कि घबराया हुआ होने के बावजूद उसने अपना धैर्य नहीं खोया और कार का दरवाजा नहीं खोला ।

इतने में वो लड़का जो गाड़ी के दरवाजे को पीट पीट कर चिल्ला रहा था उसकी नजर चालक के खुले दरवाजे पर पड़ी । वो घूमकर गाड़ी की बांयी तरफ आया और गाड़ी में हाथ डाल कर पिछला दरवाजा खोलने की चेष्टा करने लगा ।

लेकिन संतोष का भाग्य शायद आज उसका पूरा साथ दे रहा था । वो नकाबपोश भी घबराया हुआ था और कांप भी रहा था, इस वजह से वो दरवाजा भीतर हाथ डालने के बावजूद भी नहीं खोल पाया । शायद वो इस डर से भी घबरा रहे थे कि भीतर से कोई हथियारबंद सुरक्षा कर्मी ना आ जाये ।





जब उस से गाड़ी का वो दरवाजा नहीं खुला तो वो फिर घूम कर दांयी तरफ जाने को मुड़ा । उसके बाकी दोनों साथी गाड़ी से करीब 10-12 मीटर की दूरी पर थे जहां उनकी अपनी गाड़ी भी खड़ी थी । शायद इसलिए कि अगर अंदर से कोई सुरक्षाकर्मी आये तो वे भाग सके ।

संतोष गाड़ी का दरवाजा खोल नहीं रह था और उस नकाबपोश से भी जब नहीं खुला तो उस हथियारबंद नकाबपोश ने डराने के उद्देश्य से हवा में धायं से एक फायर किया ।

फायर की आवाज से फैक्ट्री के भीतर मौजूद व्यक्ति इधर उधर भागने लगे जिनकी परछाइयां बाहर तक दिख रही थी, और वो नकाबपोश, जो संतोष की गाड़ी का दरवाजा खोलने की चेष्टा में था,  वो भी अचानक हुए फायर से थोड़ा डरा और शीघ्रता से संतोष की गाड़ी से थोड़ा दूर हो गया । दरअसल उसको पता नहीं चला कि फायर उसी के साथी ने किया है ।


संतोष ने महसूस किया कि तीनों नकाबपोश हड़बड़ाहट के चलते कुछ असावधान से हो गए थे ।

उसने अपने आप को और अपनी सोच को नियंत्रित किया । और नकाबपोशों की इस असावधानी का पूरा फायदा, या कहा जाए तो एक जोखिम, भी उठाया ।

संतोष के अनुसार शायद उसके माता पिता एवं बुजुर्गों का आशीर्वाद, ईश्वर की कृपा और परिजनों की दुआएं उसके काम आए । और उसने वो जोखिम उठा ही ली ।

पता नहीं कहां से उसमें इतनी शक्ति आयी कि.......

......एक नजर उसने फैक्टरी के अधखुले दरवाजे पर डाली, मन ही मन पलों में ही कुछ निश्चय किया । एक बार फिर नकाबपोशों की स्तिथि देखी ।

और

झटके से अपनी बांयी तरफ वाला दरवाजा खोला, और तुरंत गाड़ी से उतरकर पलक झपकते ही छलांग लगा दी फैक्टरी के अंदर वाली सड़क पर ।

अंदर आकर भी रुका नहीं, डरा हुआ भी था, अतः तेजी से दौड़ते हुए इतना फर्राटे के साथ वहां से भागा कि सीधा कारखाने में, जहां उत्पादन हो रहा था, वहां जाकर ही रुका ।

पांच दस मिनट बाद ही जब उसकी सांसें संयत हुई और खुद को अपने जाने पहचाने चेहरों के पास पाया तब जाकर उसे यकीन आया कि वो अपहरणकर्ताओं के हमले में बाल बाल बच चुका है ।

इन चार मिनटों में ये खबर उसके सहकर्मियों और अन्य कार्यालयों के लोगों में भी आग की तरह फैल गई कि संतोष पर अपहरणकर्ताओं का हमला हुआ है ।

उसके पिछे पीछे जब ये खबर भी पहुंची कि वो किसी चमत्कार की तरह बच कर निकल आया है तो सबने राहत की सांस ली और संतोष को बधाई के साथ साथ इस हादसे को झेलने की वजह से हुई उसके लिए अपनी संवेदना प्रकट की ।

ईश्वर करे ऐसा किसी के साथ ना हो जैसा संतोष के साथ हुआ । क्योंकि यहां पर यदि कोई अपहृत हो जाता है तो बाद में समझौता होने में जो 10-12 दिन लग जाते हैं वे बहुत दुखदायी होते हैं उनके लिए ।

....शीघ्र ही फिर मिलते हैं मित्रों एक नई रचना के साथ । तब तक के लिए विदा । अपना ध्यान रखिएगा ।

Click here to read "Tumhari Yaade" written by Sri Shiv Sharma



जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से*









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Friday 27 October 2017

वो चार मिनट


वो चार मिनट  

   (भाग एक)




अफ्रीका के देश नाइजीरिया में "सावधानी हटी, दुर्घटना घटी" की तर्ज पर अपहरण, डकैती, लूटपाट जैसी घटनाएं आम होती रहती है । बावजूद इसके वहां पर काफी संख्या में भारतीय रोजगार के लिए जाते हैं ।

आज मैं आपको मेरे एक मित्र संतोष (बदला हुआ नाम) के साथ घटी एक घटना बता रहा हुं जो एक बड़ी कंपनी में अकाउंटेंट के पद पर करीब 10-12 वर्षों से नोकरी कर रहा था । घटना महज चार मिनट की थी परंतु वे चार मिनट उस दिन संतोष के लिए चार घंटे जैसे हो गए थे ।

संतोष की जुबानी हुआ यूं कि उस दिन शाम के करीब सवा सात बजे संतोष रोजमर्रा की तरह अपने दफ्तर से निकलने की तैयारी कर रहा था । वो नाइजीरिया में एक बड़ी कंपनी में अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत था और ये उसका हमेशा का घर जाने का वक्त हुआ करता था ।

मुख्य मार्ग पर वाहनों की अत्याधिक आवाजाही होने के कारण अक्सर वो कारखाने के पिछले दरवाजे को अपने घर जाने को प्रमुखता देता था । वहां से उसका घर कार द्वारा महज चार से पांच मिनट की दूरी पर ही था । दो ही मोड़ मुड़ने होते थे, परंतु रास्ता उबड़ खाबड़ होने की वजह से घर तक पहुंचने में दस से बारह मिनट लग जाया करते थे ।

उस दिन भी रोजाना की तरह अपना काम समेटकर वो अपनी कार में आकर बैठा । मौसम सुहावना था और शाम भी रात से मिलन की और अग्रसर हो रही थी । थोड़ा थोड़ा अंधेरा भी छा चुका था जो मौसम की वजह से थोड़ा और गहराया हुआ लग रहा था ।

ये देखकर ना जाने क्यूं एकबारगी संतोष के मन में हुआ कि ड्राईवर से कहे कि आज मुख्य मार्ग से चलो, लेकिन फिर उसने अपना मन बदला और पिछले दरवाजे से ही जाने का निश्चय किया, तब तक चालक कार चालू कर चुका था । वो अपने सहकर्मियों से शुभ संध्या बोलकर वहां से रवाना हो गया ।

गाड़ी कारखाने के अंदर वाले रास्ते से घूमकर पिछले दरवाजे तक आई । रोज की तरह दरवाजे के सुरक्षा कर्मियों ने गाड़ी का निरीक्षण किया और फिर बाहर जाने के लिए दरवाजा खोल दिया ।

कार के बाहर निकलते ही दरवाजा वापस बंद करके अंदर से ताला लगा दिया गया । चालक धीरे धीरे अपने गंतव्य की और बढ़ने लगा कि तभी अचानक....

.... सामने से आती एक और कार ने हेड लाइट जला बुझाकर संतोष की कार को रुकने का इशारा किया । चालक को लगा कि वो भी इसी कंपनी की कोई अन्य कार होगी । इसलिए उसने भी अपनी कार थोड़ी और धीमी करदी । परंतु ये क्या !!

सामने से आने वाली गाड़ी ने अपनी गाड़ी को संतोष की गाड़ी के एकदम सामने इस तरह रोका की संतोष को लगा कि जैसे दोनों गाड़ियों की आमने सामने टक्कर ही हो जाएगी ।

संतोष को एक बार थोड़ा गुस्सा आया कि सामने वाला ड्राइवर अहमक ही है क्या ? उसने नजर उठाकर ये देखने की चेष्ठा की कि सामने वाली कार का ड्राइवर कौन है ।

वो ये समझ रहा था कि उसी की कंपनी की कोई दूसरी कार है जो रात्री शिफ्ट में काम करने वाले किसी इंजीनियर को लेकर आई होगी । लेकिन जब उसकी नजरें सामने वाली गाड़ी पर पड़ी तो अगले ही क्षण उसके होश फाख्ता हो गए जब उसे उस गाड़ी से उतरते तीन नकाबपोश दिखाई पड़े । उनमें से एक के हाथ में बंदूक थी और दो खाली हाथ ।



ये क्या..... अब क्या करें.... जैसे सवाल उसके दिमाग में बजने लगे । हालांकि इस देश के इन हालातों के बारे में वो पहले से वाकिफ था और मानसिक रूप से तैयार भी, कि अगर समय खराब हुआ तो ऐसा कभी कुछ हो सकता है, परंतु जब सच में ऐसा होता हुआ दिखा, तो उसका घबराना स्वाभाविक था ।

वो मस्तिष्क में उमड़ते सवालों का कुछ जवाब सोच पाता या कुछ समझ पाता इतने में उसके चालक ने "क्या करना है" का निर्णय ले लिया था । उसने गाड़ी को बैक गियर में डाला और गोली की रफ्तार से गाड़ी को पीछे दौड़ा दिया ।

वहां आसपास खड़े कुछ लोग भी इस तेजी से पीछे आती गाड़ी को देखकर चिल्लाए भी, क्योंकि उन्हें कारण जो नहीं पता था । ड्राइवर ने पूरी रफ्तार से पीछे दौड़ाते हुए, उसी तेजी से गाड़ी को सीधे फैक्टरी के दरवाजे से टकरा दिया ।

संतोष भी हकबकाया हुआ, घबराई हालत में पिछली सीट पर बैठा मन ही मन कोई चमत्कार होने की दुआ कर रहा था । इसके अलावा वो और कर भी क्या सकता था ।

उधर गाड़ी द्वारा दरवाजे पर तेज गति की टक्कर ने संयोग से दरवाजे के अंदर का ताला तोड़ दिया, दरवाजा भी पूरा तो नहीं खुला किंतु लगभग एक चौथाई खुल गया । गाड़ी उस टक्कर के झटके की वजह से बंद हो चुकी थी ।

शायद उस चालक और संतोष का वक्त और भाग्य उनका साथ दे रहा था, तभी तो दरवाजे पर लगा बड़ा वाला ताला भी टूट गया और दरवाजा भी थोड़ा खुल गया ।

.....शेष अगले भाग में....

**क्षमा चाहूंगा मित्रों । घटना वृतांत थोड़ा लंबा हो रहा है इसलिए इसे दो भाग में प्रस्तुत करेंगे । दूसरा भाग आपको दो दिन में उपलब्ध हो जाएगा ।

तो दो दिन बाद फिर मिलते हैं तब तक के लिए विदा चाहूंगा ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*










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Friday 8 September 2017

Mobile - मोबाईल

मोबाईल


नमस्कार मित्रों । आज बात करते हैं मानव जीवन की दीनचर्या में अपना एक अहम् स्थान बना चुके मोबाइल फ़ोन की, जिसके आने से वाकई दुनिया सिमट कर मुट्ठी में आ चुकी है । चौबीसों घंटे आप अपने परिजनों की पहुँच में रहते हैं ।

आपने भी अवश्य ही गौर किया होगा कि मोबाइल आजकल किसी नामी गिरामी हस्ती से भी बड़ा स्टार बन चूका है, साथ ही मानव जीवन में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान भी बना चुका है । हालात ये हो गए हैं कि आजकल घर में जितने सदस्य हैं उतने ही, या उससे ज्यादा भी, मोबाइल फ़ोन है ।

और तकनीक का तो कहना ही क्या, रोज कुछ ना कुछ नया अनोखा गुण लिए तरह तरह के चमचमाते फोन बाजार में आ भी रहे हैं और धड़ाधड़ बिक भी रहे हैं ।

कल तक जो मोबाइल किसी के लिए दुनिया का सर्वश्रेष्ठ नग हुआ करता था वो नए अतिरिक्त गुणों वाले मोबाइल के बाजार में आते ही पुराना और बेकार लगने लग जाता है, और वो उस मोबाइल के साथ बिताए सारे हसीन लम्हों को पल भर में भुला कर नए अवतरित हुए फ़ोन से नाता जोड़ लेता है ।

लोगों के इस शौक की वजह से ये दृश्य अब घर घर में आम हो गया है कि घर में अलमारी की एक आध दराज तो दो चार पुराने फोन, कुछ बैटरियां, हैडफ़ोन, चार्जर, मोबाइल कवर इत्यादि से भरी रहती है ।




तरह तरह की सुविधाओं वाले इन मोबाइल फोन में एक और सुविधा भी है । गेम्स की । जो गेम कभी गलियों या मैदानों में खेले जाते थे वे भी आजकल इस छोटे से जादुई डब्बे में आ गए ।

लेकिन ये तो मानना पड़ेगा कि जो आनंद उन खेलों का गली मैदान में आता था वो इस डब्बे में कहां । जब दोस्तों के साथ दो चार दिन पूर्व ही योजना बनाकर छुपा छुपी जो "तीन पत्ती" खेलने का मजा था, वो थोड़े ही मिल पाता है मोबाइल में ।

वैसे तो इन गेम्स ने दुनिया में मम्मियों को (कहीं कहीं बीवियों को भी) बड़ा तंग कर रखा है । कई कई बार तो तब बेचारी परेशान हो जाती है जब गेम में डूबा उसका लाल खाने पर भी तवज्जो नहीं देता है ।

खाना पड़े पड़े ठंडा हो जाता है लेकिन वो वीर खिलाड़ी लेवल पार करने की कोशिश में जी जान से लगा रहता है । भले ही इस चक्कर में मम्मी की डांट और कभी कभार पापा से फटके भी पड़ जाए ।

उसके बाद दो चार दिन तो स्तिथि नियंत्रण में रहती है, इस बीच फिर कोई छुट्टी का दिन या रविवार आ जाता है और मम्मी का मूड देखकर "मम्मी थोड़ी देर खेल लुं" का बिल पास करवा कर वो फिर अगले लेवल को पार करने की जद्दोजहद शुरू कर देता है ।




ये तो है वास्तविक स्तिथि । अब यही दृश्य बदल जायेगा यदि ऐसा हो जाये कि गेम खेलने के हर पॉइंट या हर लेवल पर कुछ लाल नीले नोट मिलने लग जाये । फिर तो जो दृश्य होगा उसकी कल्पना करके ही आनंद आ रहा है ।

बेटा मोबाइल स्क्रीन पर नजरें जमाये तेजी से उंगलियां चला रहा है जिसमें टोपी पहने एक लड़का रेल पटरियों पर कूदते फांदते भागे जा रहा है और इधर पॉइंट्स बढ़ते जा रहे हैं । पापा पास की स्टूल पर बैठे बीच बीच में "शाबाश, वेरी गुड, वाओ क्या जम्प लगाई" जैसे शब्दों से बेटे का हौसला बढ़ा रहे हैं ।

उधर मम्मी रसोई में अपने "कमाऊ लाल" के लिए केसर बादाम वाला दूध तैयार कर रही है । गेम पूरा होने पर पापा मम्मी दोनों बेटे को गेम की टास्क पूरा करने पर बधाइयां दे रहे है । पापा अपने दोस्तों को फोन करके गर्व से बेटे के गेम के पॉइंट्स बता रहे हैं ।

शाम को अपने हाथों से खाना खिलाते हुए मम्मी कहती है, बेटा आज जल्दी सो जा, तेरा होमवर्क पापा कर देंगे । तुझे कल सुबह जल्दी उठकर कैसे भी करके दूसरे वाले गेम का 1200 वां लेवल पार करना है । 1201 लेवल पर आते ही बैंक खाते में (हाथों को फैलाकर कहती है) इतने सारे रुपये आ जाएंगे ।

पापा भी खुशी खुशी बेटे का होमवर्क कर रहे हैं जो मोबाइल गेम्स से ही संबंधित है । जिसमें तरह तरह के गेम्स की व्याख्याएं लिखने को कहा गया है ।

अगले दिन मम्मी ने सुबह 4 बजे ही मोबाइल चार्ज होने को लगा दिया है ताकि दो ढ़ाई घंटे बाद बेटे को मोबाइल की बैटरी फुल मिले । पापा सुबह उठते ही प्ले स्टोर में कुछ नए गेम सर्च कर रहे हैं ताकि कुछ अतिरिक्त धनवर्षा हो सके ।

फिर बड़े प्यार से बेटे को उठाया जा रहा है । अब बेटा उठकर पापा के खेलने लायक गेम उन्हें बता रहा है । फिर नहा धो कर बाप बेटे अपने अपने मोबाइल ले कर लग जाते हैं गेम की टास्क पूरी करने में ।

मम्मी दोनों के लिए रोज नए नए स्वादिष्ठ पकवान बनाती है और अगर वे गेम की किसी टास्क में उलझे हैं तो अपने हाथों से खिला भी देती है ।




कई मम्मियों को अपने एक या दो बच्चे होने पर अफसोस भी होता है क्योंकि जिनके पांच सात बच्चे है उनकी कमाई भी तो उतनी ज्यादा जो हो रही है ।

कुछ मम्मियां अपने बच्चों को उलाहना भी देती है, "वो वर्माजी के लड़के को देख, तीन दिन में 450 लेवल पार कर लिए, गुप्ताजी की मंझली बेटी तो 700वे लेवल पर पहुंच गई है और तू है कि अभी 300वे पर अटका पड़ा है । कुछ सीख उन लोगों से ।"

क्या अद्भुत कल्पना है ना दोस्तों ।  खैर ये तो एक मजेदार कल्पना मात्र थी । मगर हकीकत ये ही है कि आजकल हर बच्चे बूढ़े के हाथ में ये मोबाइल रूपी खिलौना है । ये जितना सुविधाजनक है उतना ही अगर ज्यादा इस्तेमाल किया जाए तो खतरनाक भी है ।

इसके द्वारा होने वाले शारीरिक और मानसिक नुकसान के बारे में आप भी अक्सर पढ़ते रहते होंगे । अतः जहां तक संभव हो मोबाइल का कम से कम इस्तेमाल करें । विशेषतया बच्चे ।

आजकल एक विशेष प्रकार के गेम की चर्चा भी चारों और है जिसमें किशोर बच्चे फंस रहे हैं और परिणामस्वरूप उसके कुछ दुखदायी समाचार भी सुनने को मिल रहे हैं । इस प्रकार के गेम भूलकर भी ना खेलें । परिजन भी इस बात का विशेष ध्यान रखें और समय समय पर बच्चों के मोबाइल और उनकी मानसिक स्तिथि का पता करते रहें एवं जरूरत पड़े तो कुछ सख्ती भी बरतें ।

अब आपसे विदा चाहूंगा दोस्तों । अपना ध्यान रखें । जल्दी ही फिर मिलते हैं ।

जय हिंद

मुहब्बत की मिठास



*शिव शर्मा की कलम से*







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Tuesday 29 August 2017

Mohabbat Ki Mithas - मुहब्बत की मिठास


मुहब्बत की मिठास

क्षमा चाहूंगा मित्रों । फिर एक बार आपसे मिलने में मैंने काफी समय लगा दिया, परंतु अब मैं कोशिश करूंगा कि सप्ताह में कम से कम हमारी एक मुलाकात होती रहे ।

इस बार फिर आपके समक्ष एक ग़ज़ल लेकर आया हुं । कैसी है ये तो आपके कमेंट्स से पता चलेगा । उम्मीद है कि आपको "मुहब्बत की मिठास" जरूर पसंद आएगी ।

    ** ** ** **

मुहब्बत की मिठास

इस कदर रिश्ते संभाल लिया करो
कुछ बातें हंसकर टाल दिया करो,

तन्हाइयां तोड़ देती है आदमी को
कुछ अपना भी ख़याल किया करो,

नफरतों की खटास, मिट ही जाएगी
मुहब्बत की मिठास डाल दिया करो,

छोटी सी जिंदगी प्यार के लिए भी कम है
नाहक ही ना कोई बवाल किया करो,

कोई जो पूछे, क्या औकात है आदमी की
थोड़ी मिट्टी हवा में उछाल दिया करो,

उम्र भर महज जवाब ही क्यों दें
ज़िंदगी से भी कुछ सवाल किया करो,

मशहूर हो जाओगे फ़क़त इतना करने से
लोगों के जख्मों से कांटे निकाल दिया करो,

जो मुंह से निकले और मशहूर हो जाये
ऐसी नायाब मिसाल दिया करो,

हर दिल अजीज़ बन जाओगे "शिव"
खुद को हर सांचे में ढाल लिया करो ।।

           * * * *

आपकी हौसला अफजाई और आपके सुझावों का इंतज़ार करूंगा । जल्दी ही फिर मिलेंगे ।

जय हिंद


पहला सुख निरोगी काया



*शिव शर्मा की कलम से*











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धन्यवाद

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Thursday 20 July 2017

Ek Woh Bhi Tha Zamana - एक वो भी था जमाना

एक वो भी था जमाना


एक वक्त था बिस्तर से हम भोर भए उठ जाते थे,
जितना बन पड़ता था काम में माँ का हाथ बंटाते थे,

लेकर डोर बाल्टी कुएं से पानी भर लाते थे,
पापा के जूते भी अक्सर पॉलिश से चमकाते थे,

दादाजी की छड़ी ढूंढ शाबाशी पाया करते थे,
दादी संग रामायण की चौपाई गाया करते थे,

खुद पढ़ते तो साथ बहन भाई को पढ़ाया करते थे,
सहपाठी मित्रों के संग कितना बतियाया करते थे,

हंसी ठिठोली मस्ती घर में हरदम छाई रहती थी,
शाम ढले नानी दादी परियों की कहानी कहती थी,



बंटी चिंटू कालू बबलू शाम ढले आ जाते थे,
खेल कबड्डी खो-खो सारे के सारे थक जाते थे,

पिंकू के घर पानी और मक्खन घर छाछ उड़ाते थे,
घर आकर फिर बड़े चाव से दाल रोटी खाते थे,

खेल थे सारे सेहत वाले, घर के बने पकवान थे,
सीमित कमाई थी लेकिन दिल से सारे धनवान थे,

दूध दही का खानपान था स्वस्थ निरोगी रहते थे,
प्रेम की सरिता मोह के सागर तब घर घर मे बहते थे,

गांव गली में कहीं भी कोई घटना गर हो जाती थी,
पलक झपकते बिना फोन ही सबको खबर हो जाती थी,

एक दूजे से वाकिफ थे और मन में आदर भाव था,
छोटे बड़ों की कद्र थी सबको कितना प्यारा गांव था,




समय जो बदला साथ साथ परिवेश भी सारा बदल गया,
गांव बन गए शहर साथ ही भेष भी सारा बदल गया,

आधुनिकता की आंधी में मौसम भी तो बदल गए,
रंग बदल गए ढंग बदल गए और हम थोड़े बदल गए,

अब ना है वो वाला बचपन है ना ही वो शैतानी है,
किस्से हो गए लुप्त परी के कहां वो दादी नानी है,

बचपन डूब रहा है भैया प्रतिशत के चक्कर में,
स्कूल से घर घर से क्लास और मोबाइल कंप्यूटर में,

पापा हो गए व्यस्त बसाने, सुख साधन खुशियां घर में,
ओवर टाइम करना जरूरी कुछ पैसों के चक्कर में,

मम्मी भी तो चली कमाने आखिर इतने खर्चे हैं,
होम लोन फर्नीचर टीवी इतने सारे कर्जे हैं,

हर महीने तौबा कितनी किश्तें बैंकों की भरनी है,
इसीलिए तो भैया को भी नौकरी कोई करनी है,


सुख की खोज में सुख को खोकर व्यर्थ ही सब मजबूर हुए,
पास होकर भी पास नहीं हम घर परिवार से दूर हुए,

लोक दिखावे की खातिर कितने दुख हमने पाल लिए,
खामोशी से चिंताओं ने घर में डेरे डाल दिए,

जब तक समझ में आया तब तक वक्त हाथ से फिसल गया,
खाली धनुष हाथ मे रह गया तीर कमान से निकल गया,

दौड़ भाग में जीवन बीता देख बुढापा रो दिए,
हाथ के मैल को पाने खातिर स्वर्णिम लम्हे खो दिए ।।

         ** ** ** **

शीघ्र ही फिर मुलाकात होगी मित्रों, किसी नई रचना के साथ । तब तक के लिए विदा दोस्तों ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*



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Thursday 22 June 2017

मैं ही मैं

मैं ही मैं

नमस्कार मित्रों । हर व्यक्ति जीवन  के हर एहसास से कभी ना कभी गुजरता ही है जिसमें प्रेम, गुरुर, मदहोशी, स्वच्छंदता आदि नाना प्रकार के मोड़ आते हैं और जहां व्यक्ति को लगता है कि इसकी वज़हें बस मैं ही हुं बाकि सब तो युं ही है ।

परंतु समयानुसार उसे ये एहसास भी होता ही होता है कि उसके इन परिवर्तनों की वजहें तो बहुत से उसके चाहने वाले हैं । उसके अपने, उसके मित्र, उसके शुभचिंतक आदि ।

इन्ही भावनाओं को, मूलतः मराठी लेखक, श्री प्रदीप माने ने एक ग़ज़ल मैं ही मैं के रूप में बांधकर आपके समक्ष प्रस्तुत किया है । आपको उनका ये प्रयास पसंद आये तो अपने मूल्यवान सुझाव और आशीर्वाद जरूर दें ।

      ** ** ** **



मैं ही मैं


मैं ही मेरा सवाल अपना और मैं ही जवाब हुं ,
मेरी अपनी सल्तनत का मैं ही नवाब हुं ।

मदहोश हुं अपनी ही धुन में होश कहाँ कोई मुझे,
मैकदा ना कर सके वो बहका सा हिसाब हुं ।

बन कर भंवरा उड़ता हुं गुलशन की हर क्यारी में,
पंखुड़ी ओढ़ चुरा लेता मैं फूलों से हिज़ाब हुं ।




झेलता हुं रोज तीखी नजरों के तीर कई ,
पलकें झुका के सब को कर लेता आदाब हुं ।

आगाज भी हुं कभी तो कभी मैं अंजाम हुं,
आंखों में किसी के छुपा हुआ ख्वाब हुं ।

दोस्तों की महफ़िल की रौनक भी हुं ज़नाब मैं,
लग ही जाएगी लत जिसकी ऐसी कम्बख्त शराब हुं ।

खुद में ही खोया हूं नीले आसमान सा,
कभी चाँद सा शीतल हुं तो कभी आफताब हुं ।




पहला झूठ कभी तो कभी आखरी सच भी हुं,
सुलझा सवाल तो कभी उलझा सा जवाब हुं ।

खामियां तो है पर कुछ खूबियां भी है मुझमें,
अमृत की बूंदें भी हुं गर मैं कभी तेज़ाब हुं ।

आप मेरे दिल में है मुझे अपने दिल में जगह देना,
कुछ नहीं अपनों के बिन मैं एक अधूरा ख्वाब हुं ।।


Click here to read "पंख" by Sri Pradeep Mane


रचना : प्रदीप माने "आभास"










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धन्यवाद
शिव शर्मा



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Sunday 11 June 2017

Saubhagyashali - सौभाग्यशाली

सौभाग्यशाली


एक पुत्री के पिता रामेश्वर बहुत ही सरल स्वभाव के थे । गांव के मंदिर में पूजा पाठ करके मंदिर में आने वाले चढ़ावे और गांव में कभी कभार होने वाले जन्म, मरण, विवाह आदि के कार्यों से अपनी जीविका चला रहे थे । उनके अपने और आस पास के गांववासी उनका बहुत सम्मान करते थे ।

ये मंदिर बरसों पहले किसी साहूकार ने बनवाया था, जिसमें पूजा पाठ का जिम्मा साहूकार और गांव वालों ने रामेश्वर के दादाजी को सौंपा था, जिसे उन्होंने और उसके बाद रामेश्वर के पिता ने बखूबी निभाया था । उनकी जीविका का साधन भी यही था ।

आमदनी भले ही कम थी परंतु परिवार छोटा होने की वजह से घर चल जाता था । और फिर दूसरा कोई साधन भी ना था, अतः दादाजी और पिताजी ने पंडिताई में ही अपने छोटे से परिवार का भरण पोषण किया था ।

रामेश्वर के पिता उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाने के सपने देखा करते थे । परंतु होनी को कौन टाल सकता है । पिता की असमय मृत्यु के कारण रामेश्वर को पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और वे भी दादाजी के साथ पंडिताई और गांव के मंदिर की देखभाल के काम में तन मन से लग गए थे । इस बीच दादाजी ने किसी तरह जोड़ तोड़ करके उनका विवाह करवा दिया था ।

समय आराम से काट रहा था । दो वक्त की रोटी समय पर मिल रही थी जिसके लिए रामेश्वर भगवान को धन्यवाद कहना कभी नहीं भूलते थे । बहुत कुछ नहीं था, पर जो भी था उसे प्रभु का प्रसाद समझकर रामेश्वर उसमें ही संतुष्ट थे । उनका मानना था कि जिस ईश्वर ने जिम्मेदारियां दी है वो ही इनको निभाने में मदद करते हैं । ईश्वर में उनकी पूरी आस्था थी ।




उधर पुत्री की बढ़ती उम्र ने उनकी पत्नी को थोड़ा चिंता में डाल दिया था कि अब आनेवाले कुछ ही वर्षों में ये विवाह योग्य हो जाएगी, और आजकल के विवाह में जो खरचे होते हैं वो इतनी सी आमदनी में कैसे वहन होगा ।

अपनी ये चिंता एक दिन उन्होंने रामेश्वर से भी कही तो रामेश्वर ने मुस्कुरा कर आसमान की तरफ हाथ उठाकर इतना ही कहा, 'भागवान, क्यों चिंता करती हो, वो बैठा है ना करने वाला । जो सबकी चिंताएं दूर करता है, हमारी चिंता भी वो ही हरेगा । और हमारी पुत्री सूंदर है, पढ़ी लिखी और सुशील है तथा इस उम्र में भी गृह कार्यों में भी इतनी निपुण है, चिंता मत करो, प्रभु सब अच्छा करेंगे ।' कहते हुए वे संध्या आरती के लिए तैयारियों में जुट गए ।

समय गुजरता गया । रामेश्वर इन बीते समय में भगवद्भक्ति में और लीन होते गए । दो वर्ष पूर्व दादाजी भी संसार छोड़ गए थे । बीते समय में मंदिर में भक्तों की संख्या भी बढ़ने लगी थी । हाल ही में कस्बे के महाजन जी ने मंदिर का बहुत ही सुंदर जीर्णोद्धार भी करवाया था ।

समय इतनी तेजी से भागा कि पता ही नहीं चला कब बेटी सयानी हो गयी । ऐसा नहीं कि उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी, पर माँ तो माँ होती है, उनकी पत्नी ने आज फिर उन्हें टोका 'उन्नीस की हो गयी है ममता, उसके लिए कोई योग्य वर ढूंढो और उसके विवाह की व्यवस्था करो ।'

तो रामेश्वर ने पत्नी को कहा कि 'भागवान, मैनें अपने और आस पड़ौस के गांव के बड़े बुजुर्गों को बोला है किसी अच्छे रिश्ते के लिए । और पास के कस्बे के महाजन जी से कुछ कर्ज के लिए भी कहा हुआ है । प्रभु कृपा से जल्दी ही कुछ शुभ समाचार मिल जाएगा । उस दीनानाथ पर भरोसा रखो, वो सब व्यवस्था कर देगा ।'

कुछ दिन बाद महाशिवरात्रि का पर्व आया । गांव वालों ने मिलकर मंदिर को आज बहुत ही सुंदर सजाया था । सुबह से ही शिव अर्चना के लिए भक्तों का आना शुरू हो गया था । पूरा गांव आज शिवमय हो गया था ।

दोपहर के लगभग 1 बज रहे थे जब रामेश्वर को थोड़ी फुरसत मिली । मंदिर में अब इक्का दुक्का भक्त ही नजर आ रहे थे । रामेश्वर अभी अभी मंदिर से घर पर आये ही थे कि तभी पास वाले कस्बे के महाजन एक भद्र पुरुष और एक सूंदर युवक के साथ घर आये ।

महाजन जी ने उनका परिचय करवाया । 'रामेश्वर जी, ये प्रेमसुखजी है, कलकत्ता रहते हैं । अभी छुट्टियों में आये हुए थे और आज सपरिवार हमसे मिलने आये थे । बातों बातों में इन्होंने बताया कि ये अपने इस छोटे पुत्र के लिए कन्या की तलाश भी कर रहे हैं । मैनें आपकी पुत्री के बारे में इन्हें बताया तो ये और इनकी पत्नी व बड़ी बहू कहने लगे कि आज की आज इनकी आपसे मुलाकात करवाऊं । सो बिना किसी सूचना के ही हम आपसे मिलने चले आये ।'

प्रेमसुखजी ने कहा 'रामेश्वर जी, जब सेठजी ने आपके और आपके परिवार के बारे में बताया तो मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और बिना आपको पूर्व सूचना के हम यहां आ गए । आपको असुविधा हुई हो तो क्षमा करें ।

'अरे नहीं नहीं प्रेमसुखजी' रामेश्वर ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा । 'महाजन जी मेरी पुत्री को अपनी पुत्री जैसा ही मानते हैं इसलिए औपचारिकता वाली तो कोई बात ही नहीं है । परंतु.......'

'परंतु क्या रामेश्वर जी' ।

'प्रेमसुखजी जी, अब मैं कैसे कहुं, मैं जानता हूं, महाजन जी ने अगर आप से चर्चा की है तो कुछ सोच समझकर ही कि होगी । लेकिन...'

'फिर लेकिन' इस बार महाजन जी बोले । 'प्रेमसुखजी मैं समझ गया रामेश्वर जी की झिझक को । ये कहते हुए शरमा रहे हैं कि ये ठहरे गांव के एक गरीब ब्राह्मण, और आप कलकत्ते के संपन्न ब्राह्मण व्यापारी । फिर मेल कैसे होगा ।'

प्रेमसुखजी पहले तो मुस्कुराए फिर बोले 'रामेश्वर जी, मैं आपकी झिझक और संदेह दोनों दूर कर देता हूं । भगवान का दिया सबकुछ है हमारे पास । मुझे सिर्फ एक योग्य, सूंदर, संस्कारी और गुणवान वधु की तलाश है । और वे सारे गुण मुझे लगता है कि आपकी पुत्री में है, जैसा कि सेठजी ने मुझे बताया ।'

'सेठजी मेरे बड़े भाई जैसे हैं । इन्ही के प्रोत्साहन और सहयोग से मैनें कलकत्ते में व्यापार शुरू किया था जो आज प्रभु कृपा से बहुत अच्छा चल रहा है ।'

'अब रही बात गरीबी और संपन्नता की, तो आप एक पुत्री के पिता हैं, गरीब कैसे हो सकते हैं । पुत्री का पिता कदापि गरीब नहीं होता, बहुत सौभाग्यशाली होता है । क्योंकि एक पुत्री का पिता ही होता है जिसे कन्यादान करने का सौभाग्य प्राप्त होता है ।'

वे एक क्षण के लिये रुके और फिर बोले 'ये मेरा छोटा पुत्र है, दोनों भाइयों ने व्यापार बखूबी संभाल रखा है और हमारे सभी परिचित इनको राम लक्ष्मण की जोड़ी से संबोधित करते है । अच्छा पढ़े लिखे भी हैं । बड़े शहर में रहकर भी अपने संस्कार नहीं भूले हैं । अब अगर आपको और आपकी पत्नी को मेरा पुत्र पसंद हो तो बात आगे बढ़ाएं ।'

रामेश्वर को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गयी । उन्होंने दरवाजे के पीछे से झांकती अपनी पत्नी को इशारे से पूछा तो उसके चेहरे पर झलकती चमक और मुस्कान ने एक पल में बिना कुछ कहे ही उसका फैसला बता दिया । और कुछ पल बाद ममता को लेकर वो बाहर आई ।

ममता ने ससम्मान उन सभी को प्रणाम किया । प्रेमसुखजी और उनके पुत्र को पहली ही नजर में ममता पसंद आ गयी । दोनों को जब पूछा तो शरमाते हुए दोनों ने हां करदी । ममता शरमा कर सबको फिर से प्रणाम कर के अंदर कमरे में चली गयी ।

'तो रामेश्वर जी' प्रेमसुखजी खुशी से बोले, 'अब आपकी बेटी हमारी हुई, कल हम अपनी पत्नी और बड़ी बहू के साथ यहां आ रहे हैं विधिवत सगाई की रस्म करने ।'

'और आप शीघ्रतिशीघ्र कोई पहला मुहूरत निकालिये विवाह का, ताकि हम तैयारियां शरू करें । हम अपनी बहू बेटी को जल्द से जल्द अपने घर की लक्ष्मी बनाना चाहते हैं ।'

सुनकर रामेश्वर ने हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए उनको इतना ही कहा 'जी जरूर' ।

'और हां रामेश्वर जी' इतनी देर से चुप महाजन जी बोले, मेरी अपनी कोई बेटी तो है नहीं । ममता को मैनें बेटी माना है, इसलिए आपकी एक भी नहीं सुनूंगा और इसके विवाह की व्यवस्था का पूरा जिम्मा मैं उठाउंगा । अब हमें इजाजत दीजिये । भाई, बेटी के विवाह की तैयारियां जो करनी है ।'

इससे पहले की रामेश्वर जी कुछ बोल पाते प्रेमसुख जी और महाजन जी, उनकी बिना कुछ सुने, ममता के माथे पर स्नेहाशीष भरा हाथ रखकर वहां से विदा हो गए ।

रामेश्वर को तो अभी तक विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि इतना बड़ा कार्य इतनी सहजता से घर बैठे हो गया । खुशी से चहकती पत्नी को देखकर बोले,

'भागवान हमारी बेटी बहुत सौभाग्यशाली है । देखो प्रभु की कृपा, जिस बात के लिए तुम इतनी चिंतित रहती थी, वो भगवान भोलेनाथ ने शिवरात्रि के शुभ दिन पर इतना अच्छा रिश्ता भेजकर युं चुटकियों में हल करदी । आपका बहुत बहुत धन्यवाद प्रभु । हमारी ममता के तो भाग खुल गए ।' कहते कहते उनकी आंखों में आंसू आ गए ।

'हां ममता के बापू, सच में बहुत सौभाग्यशाली है हमारी गुड़िया ।' बोलते बोलते उसने ममता को अपने गले से लगा लिया । ममता भी अपने माता पिता को खुश देखकर बहुत खुश थी । खुशी के आंसू तीनों की आंखों से बह रहे थे ।

**    **    **    **

मित्रों । इस बार मैनें कुछ अलग लिखने की चेष्टा की है । आपको मेरा ये प्रयास कैसा लगा । बताने की कृपा जरूर करें ।

Click here to Read "जीवनसाथी" by Sri Shiv Sharma


जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*










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Thursday 4 May 2017

Napak Padosi - नापाक पड़ौसी



नापाक पड़ौसी


नमस्कार मित्रों । सर्वप्रथम तो मैं सुकमा और कृष्णा घाटी के हमलों में शहीद हुए वीर शहीदों को नमन करता हुं ।
युं तो पिछले 70 वर्षों से धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के हालात किसी से छुपे नहीं है, जहां आये दिन हमारे सैनिकों पर  पत्थर बरसाए जाते हैं और पडौसी देश से आये आतंकवादी अक्सर हमले करते रहते हैं ।

इन घटनाओं को देख सुनकर दिल में एक टीस उठती रहती है, उस पर हाल ही में सुकमा और कृष्णा घाटी में घटी घटनाओं ने तो दिल को अंदर तक घायल कर दिया, बुरी तरह झकझोर कर रख दिया ।

अपने वीर सैनिकों के साथ हुई ये बर्बरता देख आज हर भारतीय दुखी और क्रोधित है । आखिर कब तक देश इन पीड़ादायक घटनाओं को सहता रहेगा । कहीं ना कहीं तो ये सब रोकना ही होगा । कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे ।

इसी तरह के बहुत से विचार जब मस्तिष्क में उथल पुथल मचाने लगे तो मैंने अपने विचारों को एक कविता नापाक पड़ौसी का रूप देकर आप सबसे साझा करने का सोचा और जो मन में था वो लिखता चला गया ।

यदि आपको लगे कि मेरे ये विचार आपके अपने विचारों से मेल खाते हैं तो मैं समझूंगा कि मेरा प्रयत्न सार्थक रहा ।




नापाक पड़ौसी


देखो उस गीदड़ ने फिर से
आज हमें ललकारा है
सरहद पार से आकर सीधे
गाल पे थप्पड़ मारा है

वहशीपन की हद करते इसे
लाज जरा ना आती है
दरिंदगी का दृश्य देख
मानवता भी शरमाती है

आखिर कब तक जालिम के
जुल्मों को सहते रहेंगे हम
दुम सीधी होने की कब तक
राहें तकते रहेंगे हम

आखिर कब तक चुप बैठे
बस निंदा करते रहेंगे हम
आखिर कब तक वीरों को
शर्मिंदा करते रहेंगे हम

कहीं पे नक्सल, कहीं पे पत्थर
किसी ने थप्पड़ मारी है,
आज वतन की अस्मिता पर
दहशतगर्दी भारी है,

धरती की जन्नत में भी
नफरत की फसलें उग रही है
केसर की क्यारी में नित
जेहादी नसलें उग रही है

भारत तेरे टुकड़े होंगे
जैसे नारे लगते हैं
अफजल और याकूब जिन्हें
निर्दोष बेचारे लगते हैं

गर ऐसे ही चलता रहा तो
एक दिन ऐसा आएगा
अदना सा कोई भी पडौसी
हमको आंख दिखायेगा

सवा अरब हो कर भी हम क्यों
सब कुछ सहते रहते हैं
बंद कमरों में बैठे केवल
निंदा करते रहते हैं


देश के रखवालों आखिर युं
कब तक ऐसा चलता रहेगा
सत्तर वर्ष से पीड़ा सहता
वतन हमारा जलता रहेगा

कहो आज तक क्या कुत्ते की
दुम सीधी हो पाई है
जिसके दिल में खोट भरी हो
उसे अक्ल कब आई है

लातों का है भूत उसे
बातों से क्या समझाओगे
पीठ में वो खंजर घोंपेगा
गर जो गले लगाओगे



उस कायर को पाठ पढ़ाओ
निंदा करना बंद करो
खा खा चांटे बार बार
शर्मिंदा करना बंद करो

 Karachi, Pakistanपलट वार हम कर सकते हैं
उसको ये समझाना होगा
दुष्टों को संहारने अर्जुन को
गांडीव उठाना होगा

दुश्मन का कलेजा थर्राये
ऐसी प्रचंड हुंकार भरो
बहुत हुई शांति की वार्ता
अब तो आर या पार करो

शक्ति का संधान करो अब
उसको सबक सिखादो तुम
हम क्या हैं क्या कर सकते हैं
पापी को दिखलादो तुम

आंखों में भर कर अंगारे
शेर की तरह दहाड़ो अब
चढ़ छाती पर दुश्मन की
वहां तिरंगा गाड़ो अब ।।

Click here to read "सात सुख" by Sri Shiv Sharma


जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*










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Tuesday 4 April 2017

Muskuraya Karo

मुस्कुराया करो


नमस्कार मित्रों । इस बार काफी लंबे समय बाद आपसे मुखातिब हो रहा हूँ, क्षमा चाहता हूं । समयाभाव की वजह से आपसे मिल नहीं पाया परंतु अब मैं कोशिश करूंगा कि सप्ताह में एक बार जरूर हम मुलाकात करें ।

एक बार फिर एक ग़ज़ल लिखने की कोशिश की है, इसी उम्मीद में कि हर बार की तरह इस बार भी आपका भरपूर स्नेह मिलेगा ।

   **    **    **    **

मुस्कुराया करो

इस कदर खुद को ना सताया करो,
हर बात को दिल से ना लगाया करो,

ज़माने की तो फ़ितरत ही है सताने की
आप तो हर हाल में मुस्कुराया करो,

रब जानता है साजिशें कौन करता है
हर किसी पर ऊँगली ना उठाया करो,

हर दफा दूसरा ही गलत नहीं होता
कभी यूँ भी दिल को समझाया करो,






नफ़रतें तो बढ़ाती है रिश्तों में दूरियां
मुहब्बतों के फूल खिलाया करो,

बहुत खूब कहा है किसी शायर ने भी
जंग अपनों से हो तो हार जाया करो,

तोड़ देती है मायूसियां इंसान को
खुल के हंसा करो हंसाया करो,

सुकूं मिलता है फ़क़त इतना करने से
बच्चों के साथ बच्चे बन जाया करो,

माना नामुमकिन है चाँद जमीं पर लाना
अपने नूर से महफ़िलें जगमगाया करो,

चाहो तो मोड़ दोगे रुख हवाओं का
कभी हौसले भी आजमाया करो

जिंदगी में सब कुछ नहीं मिला तो क्या
जो है उसी में खुश हो जाया करो,

यकीं मानो "शिव" जीना आसान हो जाएगा
दर रोज कुछ नए दोस्त बनाया करो ।।

**     **     **     **

आपको ये ग़ज़ल कैसी लगी, जरूर बताना ।

शीघ्र फिर मिलने के वादे के साथ आज इज़ाज़त चाहूंगा ।

जय हिंद


Read "जो भी मिला अच्छा मिला" by Sri Shiv Sharma



*शिव शर्मा की कलम से***










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Wednesday 1 March 2017

Jo Bhi Mila Achcha Mila

जो भी मिला अच्छा मिला


नमस्कार दोस्तों । इस बार फिर एक कविता लिखने की कोशिश की है । उम्मीद है कि आपको पसंद आएगी ।

जीवन की राहों की भागदौड़ में हमें अलग अलग तरह के लोग मिलते है, कई तरह के अनुभव मिलते हैं । अब ये तो मानव स्वभाव में है कि हम हर व्यक्ति या हर वस्तु में अपने मनमुताबिक कुछ खोजने की चेष्टा करते हैं, और हमारे स्वयं के ही अध्ययन के पश्चात् परिणाम में अक्सर उस में कुछ ना कुछ कमी निकाल लेते है, चाहे वो कोई हमारा रिश्तेदार हो, मित्र हो, सहकर्मी या सहयात्री हो या कोई वस्तु ।

मुझे ऐसा लगा कि अगर हम हर व्यक्ति हर वस्तु में कमियां ना देखकर अगर अच्छाइयां ढूंढें तो शायद जीवन काफी सुंदर और सरल लगने लगे । इन्ही विचारों पर ये कविता "जो भी मिला अच्छा मिला" लिखने का प्रयास किया है । अच्छी लगे या कोई कमी दिखे तो बताएं जरूर ।






जो भी मिला अच्छा मिला

झूठा मिला सच्चा मिला
पक्का कोई कच्चा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला

संसार मिला परिवार मिला
आँखों को कई सपने मिले
जीवन की अद्भुत राहों पर
गैरों में भी अपने मिले
कुछ खट्टी तो कुछ मीठी सी
यादों का एक गुच्छा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला

कोई मिल के दिल में बस गया
कोई यादें बनके रह गया
कुछ अक्स आँखों में बने
कोई आंसुओं में बह गया
कुछ पत्थरों की शख्सियतों के
दिल में एक बच्चा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला

महफ़िल में कुछ तनहा मिले
कुछ मस्त अलबेले मिले
रत्न मिले अनमोल कई
कई मिट्टी के ढेले मिले
निर्जीव सीपों में भी तो
मोती कभी सच्चा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला

अनजानों में अपने मिले
कई अपनों में अनजाने भी
हर मोड़ पे आ टकराते रहे
कुछ अपने कुछ बेगाने भी
हर इक से अलग खूबी मिली
हर इक से सबक अच्छा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला




थी प्रीत ने ली तब अंगड़ाई
जब प्यारा सा एक मीत मिला
सरगम सी दिल में बज उठी
जीवन में नया संगीत खिला
नीरस बेरंग किताबों में
सतरंगी एक परचा मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला


गैर नहीं है कोई यहाँ
हम सबके हैं सब अपने है
है जो भी वो बस आज में है
कल के तो केवल सपने है
मायूस ना हो जी भर के जी
मत सोच कि किसको क्या मिला
तू मत कर जीवन से गिला
जो भी मिला अच्छा मिला

ए मालिक तेरा शुक्रिया
इतना सुंदर संसार दिया
इस काबिल तो मैं ना था मगर
तुमने सीमा के पार दिया
तेरी रहमत का क्या बयान करुं
तेरे साये सुख सच्चा मिला
नहीं जिंदगी से कोई गिला
जो भी मिला अच्छा मिला ।।

* ** ** ***


Click here to read "जो भी होगा अच्छा होगा" by Sri Shiv Sharma



जय हिंद

* शिव शर्मा की कलम से***








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