Monday 30 October 2017

वो चार मिनट - (भाग दो)

वो चार मिनट

 (भाग दो)

अब तक आपने पढ़ा की सामने आई हुई गाड़ी से उतरते नकाबपोशों को देखकर संतोष की ड्राइवर ने अपनी गाड़ी पीछे दौड़ाते हुए फैक्ट्री के बंद दरवाजे से टकरा दी । उसके बाद क्या हुआ उसका वृतांत अब....

.....शायद उस चालक और संतोष का वक्त और भाग्य उनका साथ दे रहा था, । तभी तो दरवाजे पर लगा बड़ा वाला ताला भी टूट गया और दरवाजा भी थोड़ा खुल गया ।

खुला दरवाजा देखकर फुर्ती से चालक गाड़ी से उतरा और तुरंत फैक्टरी के अंदर भागा । अंदर जाते ही जोर जोर से पुलिस पुलिस, हेल्प हेल्प चिल्लाकर पुलिस कर्मी और सुरक्षा कर्मियों को आवाज देने लगा ।

तब तक संतोष कार के भीतर ही था । अचानक हुए इस वाकये से वो इतना हकबका गया था, और थोड़ा घबरा भी गया था कि उसको पता ही नहीं चल पाया था कि ड्राइवर कब गाड़ी से उतरा और कब अंदर चला गया था ।

सामने वाली कार और वे तीन नकाबपोश भी तब तक भागते भागते संतोष की गाड़ी के पास आ गए थे । और जब उनकी नजर फैक्टरी के खुले दरवाजे और अंदर होती हलचल पर पड़ी तो वे खुद भी थोड़ा घबरा से गये थे जो उनके हावभाव से साफ झलक रहा था ।

संतोष समझ गया कि हो ना हो ये अपहरणकर्ताओं का ही हमला है और थोड़ा धैर्य से काम लेना है ।

संतोष को ये भी समझ मे आ गया कि ये कोई बड़े गिरोह के सदस्य नहीं हो सकते । क्योंकि अगर बड़े गिरोह से इनका संबंध होता तो बंदूक एक के पास नहीं, सबके पास होती । इस बात ने संतोष का साहस भले ही थोड़ा सा मगर बढ़ा दिया था ।

वे नकाबपोश संतोष की कार की तरफ आए और उस की गाड़ी के दरवाजे पर हाथ मार मार कर संतोष को दरवाजा खोलने का कहने लगे । डर और घबराहट उनके चेहरों पर भी झलक रही थी, शायद वे इस तरह का दुस्साहस पहली बार कर रहे थे ।

वे बार बार फैक्टरी के खुले दरवाजे की तरफ भी सतर्कता वाली नजरें घूम रहे थे । क्योंकि शायद उन्हें पता था कि अंदर भी हथियारबंद पुलिस कर्मी मौजूद है और उनको लेने के देने न पड़ जाए ।

चालक अंदर से अभी भी चिल्ला चिल्ला कर पुलिसकर्मियों और वहां कारखाने में मौजूद कामगारों को आवाजें दे रहा था । भीतर शायद कोई दूसरी कार भी खड़ी थी जिसकी हेड लाइट के आगे हलचल की वजह से उन नकाबपोशों को यूं लग रहा था जैसे अंदर बहुत से लोग इकट्ठा हो गए हों ।

संतोष ने यहां थोड़ी सी समझदारी दिखाई कि घबराया हुआ होने के बावजूद उसने अपना धैर्य नहीं खोया और कार का दरवाजा नहीं खोला ।

इतने में वो लड़का जो गाड़ी के दरवाजे को पीट पीट कर चिल्ला रहा था उसकी नजर चालक के खुले दरवाजे पर पड़ी । वो घूमकर गाड़ी की बांयी तरफ आया और गाड़ी में हाथ डाल कर पिछला दरवाजा खोलने की चेष्टा करने लगा ।

लेकिन संतोष का भाग्य शायद आज उसका पूरा साथ दे रहा था । वो नकाबपोश भी घबराया हुआ था और कांप भी रहा था, इस वजह से वो दरवाजा भीतर हाथ डालने के बावजूद भी नहीं खोल पाया । शायद वो इस डर से भी घबरा रहे थे कि भीतर से कोई हथियारबंद सुरक्षा कर्मी ना आ जाये ।





जब उस से गाड़ी का वो दरवाजा नहीं खुला तो वो फिर घूम कर दांयी तरफ जाने को मुड़ा । उसके बाकी दोनों साथी गाड़ी से करीब 10-12 मीटर की दूरी पर थे जहां उनकी अपनी गाड़ी भी खड़ी थी । शायद इसलिए कि अगर अंदर से कोई सुरक्षाकर्मी आये तो वे भाग सके ।

संतोष गाड़ी का दरवाजा खोल नहीं रह था और उस नकाबपोश से भी जब नहीं खुला तो उस हथियारबंद नकाबपोश ने डराने के उद्देश्य से हवा में धायं से एक फायर किया ।

फायर की आवाज से फैक्ट्री के भीतर मौजूद व्यक्ति इधर उधर भागने लगे जिनकी परछाइयां बाहर तक दिख रही थी, और वो नकाबपोश, जो संतोष की गाड़ी का दरवाजा खोलने की चेष्टा में था,  वो भी अचानक हुए फायर से थोड़ा डरा और शीघ्रता से संतोष की गाड़ी से थोड़ा दूर हो गया । दरअसल उसको पता नहीं चला कि फायर उसी के साथी ने किया है ।


संतोष ने महसूस किया कि तीनों नकाबपोश हड़बड़ाहट के चलते कुछ असावधान से हो गए थे ।

उसने अपने आप को और अपनी सोच को नियंत्रित किया । और नकाबपोशों की इस असावधानी का पूरा फायदा, या कहा जाए तो एक जोखिम, भी उठाया ।

संतोष के अनुसार शायद उसके माता पिता एवं बुजुर्गों का आशीर्वाद, ईश्वर की कृपा और परिजनों की दुआएं उसके काम आए । और उसने वो जोखिम उठा ही ली ।

पता नहीं कहां से उसमें इतनी शक्ति आयी कि.......

......एक नजर उसने फैक्टरी के अधखुले दरवाजे पर डाली, मन ही मन पलों में ही कुछ निश्चय किया । एक बार फिर नकाबपोशों की स्तिथि देखी ।

और

झटके से अपनी बांयी तरफ वाला दरवाजा खोला, और तुरंत गाड़ी से उतरकर पलक झपकते ही छलांग लगा दी फैक्टरी के अंदर वाली सड़क पर ।

अंदर आकर भी रुका नहीं, डरा हुआ भी था, अतः तेजी से दौड़ते हुए इतना फर्राटे के साथ वहां से भागा कि सीधा कारखाने में, जहां उत्पादन हो रहा था, वहां जाकर ही रुका ।

पांच दस मिनट बाद ही जब उसकी सांसें संयत हुई और खुद को अपने जाने पहचाने चेहरों के पास पाया तब जाकर उसे यकीन आया कि वो अपहरणकर्ताओं के हमले में बाल बाल बच चुका है ।

इन चार मिनटों में ये खबर उसके सहकर्मियों और अन्य कार्यालयों के लोगों में भी आग की तरह फैल गई कि संतोष पर अपहरणकर्ताओं का हमला हुआ है ।

उसके पिछे पीछे जब ये खबर भी पहुंची कि वो किसी चमत्कार की तरह बच कर निकल आया है तो सबने राहत की सांस ली और संतोष को बधाई के साथ साथ इस हादसे को झेलने की वजह से हुई उसके लिए अपनी संवेदना प्रकट की ।

ईश्वर करे ऐसा किसी के साथ ना हो जैसा संतोष के साथ हुआ । क्योंकि यहां पर यदि कोई अपहृत हो जाता है तो बाद में समझौता होने में जो 10-12 दिन लग जाते हैं वे बहुत दुखदायी होते हैं उनके लिए ।

....शीघ्र ही फिर मिलते हैं मित्रों एक नई रचना के साथ । तब तक के लिए विदा । अपना ध्यान रखिएगा ।

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जय हिंद
*शिव शर्मा की कलम से*









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