Thursday 27 December 2018

नन्ही कोंपल

नन्ही कोंपल



नमस्कार दोस्तों । आज एक कविता लेकर आया हुं जिसकी भूमिका मैं नहीं बताऊंगा । आप ही बताएं कि जब मैं ये कविता लिख रहा था तो नन्हीं कोंपल की आड़ में मेरे मस्तिष्क में क्या दृश्य रहा होगा । मैं आपके जवाब का इंतजार करूंगा ।


नन्ही कोंपल


समय ना रुका है ना रुकता है
ना थकता है, ना झुकता है

पीढियां आती है
चली जाती है
समय के साथ
कुछ नन्ही कोंपल
पौधा बन जाती है,

अपनी नई काया पर
इठलाती, इतराती, बलखाती
हवाओं से अटखेलियां करती
नन्ही नन्ही शाखाओं को
अपने आसपास लहराती

देखती है बड़े बड़े जर्जर पेड़
जो सुख चुके हैं अंदर से
हवाओं के तेज झोंके से
जो गिर सकते हैं कभी भी

वो कोंपल
उपहास उड़ाती है
उन बूढ़े पेड़ों का
ये भूलकर
कि उन्ही के साए में
वो पनप रही है
कोंपल से पौधा बन रही है

मगर वो मुरझाये हुए वृक्ष
मुस्कुराते हुए
आनंद उठाते है
कोंपल से पौधा बने
अपने उस नए सदस्य का

निहारते हैं उसकी सुंदरता
खुश होते है
देखकर उसकी चंचलता
तेज धूप में
उसे छाया देते हैं
हवा के तेज थपेड़ों में
अपना साया देते हैं



हर संकट से छुपाते
हर तरह से खयाल रखते है
नई कोंपल को बचाने
हर सुख दुख सहते हैं

वही कोंपल एक दिन
जवान हो जाती है
एक बड़ा पेड़ बन जाती है

अपनी मजबूत शाखाएं
गुरुर से फैलाती है
युवा ताकत के मद में
उन बूढ़े पेड़ों को सताती है

वो चाहती है उन्हें वहां से हटाना
ताकि लहरा सके
अपनी शाखाओं को
आसमान तक

क्योंकि उसे भान नहीं है
दुनिया की बुरी नजरों का
उसे भान नहीं है
पग पग पर फैले खतरों का

बूढ़े वृक्ष उसे बचाते हैं
समझाते हैं
दायरे में रहकर
शालीनता से जीना सिखाते हैं

उसे दिखाते हैं आईना
कि भविष्य में
वो भी एक
बूढा पेड़ बनेगी
तेरे साये में भी
कुछ नई कोंपल उगेगी

तुम्हें संभालना है उन्हें
बड़ा करना है उन्हें
हम आज है
कल रहें ना रहें

मगर तुम रहोगे
क्या सब कुछ
अकेले सहोगे
इसलिए
अपने साये में
नई कोंपलें उगने देना
खिलने देना, महकने देना
फिर देखना
जीवन महक उठेगा
पल पल चमक उठेगा

कुछ कोंपलें
समझ जाती है
अपने बुजुर्गों की बातें

और जीती है
एक शांतिमय मधुर जीवन
अनेकों अन्य
नई कोंपलों के साथ

और वो कोंपल
जो अपनी अकड़ में
यौवन के मद में
नकार देती है नसीहतें
एकाकी रह जाती है
अंत समय पछताती है

हवा के हल्के से झोंके में
जब हिलती है जड़ें
तब ढूंढती है कोई साथी
लेकिन
कोई नहीं होता
क्योंकि
बूढ़े पेड़ सूख कर
बिना सहारे
"टिक" ना पाए
नए उसके उग्र साये में
"रुक" ना पाए ।।

* जल्दी ही मिलते है मित्रों*

बिगड़ी बात बने नहीं



जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.


Thursday 29 November 2018

बिटिया

बिटिया


नमस्कार मित्रों । इस बार फिर एक छोटी सी कविता ले कर आया हुं । कैसी लगी जरूर बताना ।

बिटिया


समय कितनी जल्दी भागता है
जैसे पंख लगे हो इसे
परिंदों की तरह
फुर्र से उड़ जाता है

कल की सी बात लगती है
जब छोटी सी गुड़िया
अपनी तुतलाती सी
मीठी मीठी बोली से
हमें पुकारती थी



नन्हे नन्हे पैरों में
छोटी छोटी पायल छनकाती
इठलाती सी
घर भर में दौड़ती थी

पीछे से चुपके से आकर
नन्हे नन्हे कोमल हाथों से
हमारी आंखें बंद कर के
खनकती सी हंसी हंसती थी

उसकी मासूम शैतानियां
कितनी लुभावनी थी
कितनी मनमोहक थी
और कितनी सुहावनी थी

दादाजी के साथ
रोज शाम को बगीचे में जाना
अपनी ही समझ से
दादी के लिए
कुछ खिले कुछ अधखिले
पूजा के लिए फूल ले आना

मास्टर जी को कुछ आता नहीं
सब मुझसे ही पूछते हैं
जैसी मासूम बातें थी
स्कूल के दिनों में अक्सर
मास्टरजी की ही शिकायतें थी

वक्त अपनी आदतानुसार
चलता रहा, छलता रहा
हर रोज सूरज उगता
और ढलता रहा

पता ही नहीं चला
बिटिया कब स्कूल से
कॉलेज में आ गई
बचपन की शैतानियों की जगह
स्वभाव में
परिपक्वता आ गई

अब वो घर के काम में
माँ का हाथ बंटाने लगी थी
दादाजी की छड़ी बनकर
उन्हें बगीचे में ले जाने लगी थी

वक्त तो जैसे
पंख लगा के उड़ता रहा
उम्र की इस गणित में
एक एक साल जुड़ता रहा

समय के साथ
बिटिया सयानी हो गई
उसके ब्याह की चिंता में
व्याकुल दादी नानी हो गई

अच्छे घर का रिश्ता आया
झटपट सगाई हो गई
फिर कुछ दिनों बाद
उसकी विदाई हो गई
बीस साल पाली पोसी
मेरी अपनी बिटिया
एक पल में
पराई हो गई

अधभिगी मगर मुस्कुराती
उन आंखों की पीड़ा को
कौन पहचानता है
बेटी को विदा करने का दर्द तो
एक पिता ही जानता है ।।

**     **     **     **

Click here to read ना जाने 


जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*







आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद


Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.


Wednesday 10 October 2018

प्रेम की डोर

प्रेम की डोर


नमस्कार मित्रों । सर्वप्रथम तो मैं आप सबका आभार व्यक्त करता हुं कि आपने "लोगों की तो आदत है" रचना को इतना पसंद किया । आप सभी का हृदय से आभार ।

इस बार मैंने पहली दफा एक प्रयास किया है एक गीत लिखने का । उम्मीद है कि "प्रेम की डोर" गीत भी आपको मेरी अन्य रचनाओं की तरह अवश्य पसंद आएगा ।

प्रेम की डोर


तू मेरी चाँद मैं हुं चकोर
आ उड़ चलें गगन की ओर
थाम कर प्रेम की कोमल डोर
आ उड़ चलें गगन की ओर

मस्त पवन के झोंके होंगे
होगी ठंडी फुहार
हाथ में लेके हाथ उड़ेंगे
सात समंदर पार
मिलेगी काली घटा घनघोर
आ उड़ चलें गगन की ओर

संग संग उड़ेंगे पंछी उनसे
हम मुलाकात करेंगे
कुछ कोयल से कुछ मैना से
मीठी मीठी बात करेंगे
मिट्ठू मियां बड़ा चितचोर
आ उड़ चलें गगन की ओर

बैठ बादलों की गोदी में
चांद निहारेंगे हम
आसमान में बिखर गए जो
सितारे संवारेंगे हम
रंग भर देंगे चारों ओर
आ उड़ चलें गगन की ओर

उड़ते उड़ते साजन फिर हम
चाँद तलक जाएंगे
थोड़ी उसकी चुरा चांदनी
वापस भाग आएंगे
चलेगा उसका ना कोई जोर
आ उड़ चलें गगन की ओर

मैं तेरी चांद तुम हो चकोर
आ उड़ चलें गगन की ओर
प्रेम की डोर नहीं कमजोर
आ उड़ चलें गगन की ओर ।।

             ** **

शीघ्र ही फिर मुलाकात होगी दोस्तों ।

बारात का आनंद



जय हिंद

* शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद


Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.





Wednesday 19 September 2018

लोगों की तो आदत है

लोगों की तो आदत है


नमस्कार मित्रों । आज एक कविता लेकर आया हुं, जिसमें मैंने हमारे जीवन में, हमारे आसपास जो रोज घटित होता है उसे दर्शाने का प्रयास किया है । अब मेरा ये प्रयास कितना सार्थक हुआ है ये तो आपकी राय, आपके कमेंट्स से ही पता चलेगा । सो अपनी राय अवश्य बताएं ।

लोगों की तो आदत है


बात बात पर हंसी उड़ाना
लोगों की तो आदत है,
एक दूजे को नीचा दिखाना
लोगों की तो आदत है,

कौन कहाँ कब किससे मिला
किसने किसको क्या बोला
किसके घर में हुई लड़ाई
किसने किसका सर खोला
बैठे तिल का ताड़ बनाना
लोगों की तो आदत है
सबके फ़टे में टांग अड़ाना
लोगों की तो आदत है,

तू ये कर, तू वो मत कर
ये ज्ञान मुफ्त में देते है
चक्रव्यूह में फंसा किसी को
मजा मुफ्त का लेते हैं
भूलभुलैया में युं घुमाना
लोगों की तो आदत है
याद तू रखना भूल ना जाना
लोगों की तो आदत है,

शम्भू की गाड़ी खराब है
बाबू की साइकिल पंक्चर
मोती, लाला, सागर, शौकत
सबकी रखते हैं ये खबर
दिन भर झूठी खबरें बनाना
लोगों की तो आदत है
खोटी अफवाहें फैलाना
लोगों की तो आदत है,



ऐसा नहीं है सब खराब है
कुछ अच्छे भी होते हैं
चोर उचक्कों में भी भैया
कुछ सच्चे भी होते है
सच्चों को चश्मा पहनाना
लोगों की तो आदत है
उनको अपने जैसा बनाना
लोगों की तो आदत है,

अपनी समझ से जीवन जीना
अपनी राह पकड़ के चलना
सुनना सबकी करना मन की
बात दिमाग में एक ये रखना
गलत दिशाएं सदा दिखाना
लोगों की तो आदत है
राही को राहें भटकाना
लोगों की तो आदत है ।।

** ** ** **


जीवनसाथी



मेरे खयाल से इस कविता में जिन लोगों का जिक्र है वे लोग हर गांव, हर शहर में मिल जाते हैं, आपका क्या खयाल है ।

जल्दी ही फिर मुलाकात होगी दोस्तों । तब तक के लिए विदा चाहूंगा ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.

Sunday 12 August 2018

गुड़िया

गुड़िया


नमस्कार दोस्तों । अनूप शर्मा द्वारा लिखित एक और सुंदर सी कविता "गुड़िया" पेश है, मेरा दावा है कि ये कविता आपको उनकी पिछली कविताओं से भी ज्यादा पसंद आएगी और आप हर बार की तरह इस बार भी अनूप शर्मा की खूब हौसलाअफजाई करेंगे ।




गुड़िया

लो जी
अब उसकी शादी हो गयी
वो जो कल तक गुड़िया थी
अपने पापा की
अब बन गयी है बहु
एक अजनबी घर की

जहा कोई नही जानता उसे
ना ही वो किसी को

भाई बहन सखियां
कितने तो थे वहां
छोड़ कर सबको
चली आयी किसी के एक के पीछे
साथ लिए आशाओ को

सौ बार कहने पर भी माँ के
नही कर पाती थी
कोई भी काम ढंग से
अब कर रही हर जतन
कि सब खुश रहे
उसकी वजह से

जिसे नही पता था
सूरज कब उगता है
कब चिड़िया चहकती है
उठ खड़ी होती है
रोशनी होने से पहले

माँ के घर मे
उसी की तो चलती थी
भाई बड़ा हो या छोटा
फर्क नही पड़ता
रौब तो वही रखती थी

अब सुनती है सबकी
चुपचाप
गलती या बिना गलती
फर्क नही पड़ता

शैतानियां जिसकी
हर रोज होनी थी
डांट पापा की फिर भी
भाई को ही खानी थी

करती है अभी भी
वैसे ही कई बार
मगर
कभी सपनो में
कभी यादों में

शादी, उत्सव
तीज त्योहार के क्षण
व्यस्त कर देते थे उसे
सजने से कहाँ फुरसत मिलती थी



अब कई रोज पहले
लग जाती है तैयारियों में
जिम्मेदारी जो निभानी है उसे

शरारतों में हो जाती थी
सुबह से शाम
उन दिनों में,
अब दिन गुजर जाता है,
शाम तो नही
हाँ रात हो जाती है

माँ की जरा सी डांट पर
आंसू तो जैसे
तब नाक पर रहते थे
फिर रुठ कर
हजारो मासूम शिकायतें
अपने पापा से
ना जाने क्यूं
पापा भी हर बार
उसी का तो पक्ष लेते
और दुलारकर, समझाकर
फिर मना लेते

अब कर लेती है सहन
सब कुछ
आंखों में छुपाए हुए
आंसुओ का समुंदर

रो लेती है कभी कभी
अकेले में
होंठो को सीले हुए
कि सिसकियां भी जिसकी
सुनाई नही देती ।

जय हिंद

*अनूप शर्मा की रचना*









आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा


Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.

Wednesday 8 August 2018

काका - Hindi Story

काका


प्रहलादजी मास्टर जी पांच छः वर्ष पूर्व ही कहीं बहुत दूर से इस गांव में रहने आये थे और अपने अच्छे स्वभाव से जल्दी ही सबसे घुलमिल गए थे ।

गांव के सरपंच की मदद से उन्होंने एक छोटी सी कक्षा खोल ली थी जहां वो हर क्लास के बच्चों को पढ़ाया करते थे । पढ़ाने का शुल्क बस इतना ही लेते थे कि अपना जीवन यापन कर सके ।

गांव वाले उनके बारे में इतना ही जानते थे कि ये बहुत दूर से आये हैं और सरपंच साब की पहचान वाले हैं ।

गांव वाले कभी कभार उनसे पूछते रहते थे कि मास्टर जी अपने बारे में कुछ बताइये, तो वो मुस्कुराकर इतना ही कहते क्या करोगे भाई जानकर ।

गर्मियों की एक शाम को एक बार मास्टरजी, सरपंच और कुछ गांव वाले गांव में बने एक छोटे से बाग में बैठे गपशप कर रहे थे । बात बात में बात चल पड़ी कि आदमी के पास कितना पैसा होना चाहिए । और इसे कमाने के लिए क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए ।

सबकी अलग अलग राय थी । अंत में जब मास्टरजी से पूछा गया तो उन्होंने कहा "एक अच्छा जीवन जीने जितना पैसा होना चाहिए, लेकिन इसे कमाने के लिए अपनी योग्यतानुसार काम करना चाहिए । पैसे कमाने के लिए गलत काम कभी नहीं करने चाहिए, क्योंकि बुरे काम का नतीजा हमेशा बुरा ही होता है ।"

"जैसे" एक ग्रामवासी ने पूछा तो मास्टर जी बोले ।

आज मैं इसी विषय पर आपको एक सच्ची घटना बताता हूं ।

एक गांव में कमल नामक एक लड़का रहता था । सीधा सादा और हमेशा खुशमिजाज रहे वाला कमल गांव में काका के नाम से प्रसिद्ध था । सबसे हंसकर मिलना और हर छोटे बड़े को सम्मान देना उसके स्वभाव में शामिल था । एक चिर परिचित मुस्कान हमेशा उसके चेहरे पर रहती थी ।

उसका नाम काका कैसे पड़ा ये भी एक पहेली थी । उसके दोस्त बताते थे कि स्कूल के समय कमल राजेश खन्ना साहब की नकल किया करता था, शायद इसीलिए वो काका के नाम से प्रसिद्ध हो गया था ।

काका अपने माता पिता की इकलौती संतान था और संयोगवश काका को भी एक ही पुत्र था, आनंद ।

आनंद का जन्म काका के विवाह के लगभग पांच वर्षोपरांत हुआ था । काका के माता पिता जो दादा दादी बनने को तरस रहे थे वे पोते को देखकर कितने प्रसन्न हुए थे । छोटा सा परिवार सुख से अपना जीवन गुजार रहा था ।

परंतु विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था । आनंद के जन्म के महज छः महीने बाद ही बीमार चल रहे काका के पिता का देहांत हो गया और उनके पीछे पीछे ही दो महीने बाद मां भी चल बसी । शायद वो अपने पति के विरह को ना सह सकी थी । समय के साथ काका ने अपने आप को इस दुख से उबार लिया था ।

शहर की नोकरी से काका का घर खर्च आराम से निकल जाता था । काम पर आने जाने के लिए वो रोज साईकल से 8 किलोमीटर की यात्रा किया करता था ।

पिताजी की बीमारी की वजह से वो खुद स्कूल से आगे नहीं पढ़ पाया था लेकिन आनंद को पढ़ा लिखाकर वो बड़ा आदमी बनाने के सपने देखा करता था । तभी तो आनंद जब स्कूल जाने योग्य हुआ तो काका ने उसे शहर की सबसे अच्छी स्कूल में डाला था ।  कहता था कि थोड़ी महंगी जरूर है पर थोड़ा ज्यादा काम करके कुछ अतिरिक्त आय कर लूंगा ।

अनेकों तकलीफें सहकर भी काका ने आनंद की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दी । आनंद जब कॉलेज में आया तो शहर के कॉलेज आने जाने के लिए, कर्ज ले कर, काका ने उसे मोटरसायकिल दिला दी थी । आनंद भी उसकी उम्मीदों पर खरा उतर रहा था और हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होता था ।

आनंद पढ़ाई में तो होशियार था ही, उसके सपने भी बड़े ऊंचे थे । वो अक्सर अपने पिता को पाई पाई के हिसाब से चलते देखता तो कहता था "पापा देखना, मैं बहुत पैसे कमाऊंगा और एक दिन आपको कार लाके दूंगा । फिर हम यहां इस छोटे से गांव में नहीं, किसी बड़े शहर में रहेंगे ।"

काका उसकी बात को हंसकर टाल देता था और समझाता कि बेटा खूब कमाना, कार भी ले आना, मगर मेहनत और ईमानदारी से ।

पढ़ाई पूरी करके और अपनी डिग्री प्राप्त करके आनंद मुम्बई चला गया । वहां पर उसे एक कम्पनी में नोकरी मिल गयी थी । अच्छी खासी तनख्वाह थी, इतनी कि कुछ महीनों बाद उसने किराए पर एक घर ले लिया और काका काकी को भी जिद्द करके अपने साथ मुम्बई ले गया ।

अच्छी कमाई होने के बावजूद भी आनंद उस से संतुष्ट नहीं था । वो शीघ्रतिशीघ्र खूब दौलत कमाना चाहता था ।

काका उसे समझाया करता था कि जो कमाई तुम्हारी है वो हमारे छोटे से परिवार के लिए काफी है । एक सुखी जीवन के लिए जो चाहिए वो सब कुछ हमें मिल रहा है, फिर क्यों ज्यादा के पीछे भागना ।

लेकिन आनंद नहीं समझा और पैसों के लालच में वो गलत काम भी करने लग गया । पढ़ा लिखा और तेज दिमाग तो था ही । कई तरह की तिकड़म लगाकर पैसों के लिए छोटे मोटे गैर कानूनी काम भी करने लग गया ।

काका काकी इन सबसे अनजान थे । कभी कभी तो वो रात रात भर घर नहीं आता था । हां फोन जरूर कर देता था कि आज वो घर नहीं आ पाएगा ।

काका ने जब उससे पूछा था की बेटा आजकल काफी देर से आते हो और कभी कभी रात को भी नहीं आते तो उसने कहा था कि आजकल जिम्मेदारी और काम ज्यादा बढ़ गया है, इसलिए देर हो जाती है । और हां, खुशखबरी सुनो पापा कि काम के साथ साथ मेरी तनख्वाह भी बढ़ गई है, आनंद ने हंसते हुए कहा था ।

काका काकी भी बेटे की कामयाबी पर खुश थे और सोचते थे कि बेटा ऑफिस में बहुत व्यस्त है । परंतु कभी कभी उदास भी हो जाते कि बेटा कितना काम करता है ।




इसी तरह एक साल गुजर गया । इस बीच आनंद ने मुम्बई में अपना खुद का एक छोटा सा घर भी ले लिया ।

काका ने फिर उससे पूछा कि बेटा इतने पैसे कहां से आये, तो आनंद ने फिर सीधे साधे काका को बातों में घुमा दिया कि "कुछ ऑफिस से और कुछ अपने दोस्तों से कर्ज लिया है जो मैं जल्दी ही चुका दूंगा । मैंने आपको बताया था ना कि मेरी तनख्वाह बढ़ गई है ।"

काका ने भी विश्वास कर लिया । ना मानने जैसी कोई बात भी तो नहीं थी । कुछ दिन बाद काका ने भी आनंद से कहकर, समय काटने के लिए, घर के नीचे ही एक जनरल स्टोर करली थी ।

समय अच्छाखासा चल रहा था । किसी चीज की कोई कमी नहीं थी । काका दुकान में मस्त और काकी घर संभालने में । काका की नजर में बेटा भी अपनी मेहनत और लगन से अच्छा कमा रहा था ।

मगर कहते हैं ना बुरे काम का बुरा नतीजा, वही हुआ ।

एक बार जब दो दिन तक आनंद का ना फोन आया ना वो खुद, तो काका ने डरते डरते आनंद की ऑफिस में फोन किया ।

डरते डरते इसलिए क्योंकि आनंद ने उन्हें कह रखा था कि हमारी ऑफिस के नियम बड़े सख्त है । बहुत जरूरी हो तो ही किसी कर्मचारी के घर वाले उसे फोन कर सकते हैं, अतः आप भी मत करना । जरूरत हुई तो मैं कर लूंगा ।

फोन के प्रत्युत्तर में जो जवाब काका को मिला था वो सुनकर तो वो सन्न रह गया । ऑफिस वालों ने बताया कि आनंद ने तो करीब डेढ़ वर्ष पहले ही नोकरी छोड़ दी थी ।



"फिर इतना पैसा वो कहाँ से लाता है" काकी के इस प्रश्न का काका के पास कोई जवाब नहीं था । लेकिन जवाब भी तुरंत मिल गया जब दरवाजे पर दस्तक हुई ।

दरवाजा खोला तो सामने पुलिस को देखकर अचंभित काका काकी कुछ अनहोनी की आशंका से भर उठे ।

"आप कमल जी हैं" पुलिस वाले ने काका को संबोधित करके पूछा ।

"जी हां, क्या बात है" काका ने घबराहट भरे स्वर में पूछा ।

"आपको हमारे साथ थाने चलना होगा । बयान लेना है, हो सकता है आपको पता हो या ना हो लेकिन आपका बेटा धोखाधड़ी और ठगी के जुर्म में गिरफ्तार है ।"

इतना सुनकर काका और काकी तो जैसे जड़ ही हो गए थे । कहाँ वो तीन चार दिन पहले आनंद के विवाह के बारे में चर्चा कर रहे थे और अचानक ये वज्रपात ।

थाने से वापस आते वक्त काका काकी के पांव जैसे जमीन में धंस रहे थे । जिस आनंद को दो साल पहले उसकी चमचमाती ऑफिस में बड़ी वाली कुर्सी पर बैठे देखा था वो आज जेल में बंद था ।

उसके बाद दो साल तक काका ने कोर्ट कचहरी के बहुत चक्कर काटे । लेकिन आनंद को सजा से नहीं बचा पाया । उसे सात वर्ष की सजा हो गई और इधर उसके कमाए हुए सारे काले पैसे भी खर्च हो गए । बेचारे सीधे साधे काका के सारे सपने लड़के के लालच की भेंट चढ़ गए ।

काकी इस सदमे को सह नहीं पाई थी और बीमार रहने लगी थी । भीतर ही भीतर काका भी टूट चुका था । जब हर तरफ से वो हर गया और काकी का स्वास्थ्य भी दिनबदिन खराब होता जा रहा था इसलिए वो सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापस अपने गांव आ गया ।

काकी उसके बाद ज्यादा दिन नहीं निकाल सकी और एक दिन इस संसार को अलविदा कह गई । काका का मन इन सब घटनाओं के चलते संसार से विरक्त हो गया और एक दिन वो गांव छोड़कर पता नहीं कहाँ चला गया ।

"और आनंद का क्या हुआ मास्टर जी" जिज्ञासावश एक गांववासी ने पूछ लिया ।

आनंद जेल से छूट कर जब गांव आया तो उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी । कुछ वर्ष उसने दिल्ली शहर में काम किया और अपने पिता को खोजने का प्रयास किया । बीते वर्षों में वो अब पूर्ण रूप से बदल चुका था, वो ये जान गया था कि पैसा अपनी मेहनत से ही कमाना चाहिए और हमेशा अपने बड़ों की सीख माननी चाहिए ।

हालांकि उसे उसके पिता तो नहीं मिले लेकिन एक मित्र जरूर मिल गया था जिसने उसकी पूरी कहानी जानकर भी उसकी बहुत मदद की ।

"तो अब आनंद और उसका वो मित्र कहां है" एक प्रश्न और आया ।

जिसका जवाब सरपंच साब ने दिया "आनंद आपको अपनी कहानी सुना रहा है और उसका मित्र आपका सरपंच है ।"

* ** ** **

Links :

खूबसूरत बंटवारा

बाबुल का घर


ये कहानी आपको कैसी लगी, जरूर बताना । जल्दी ही फिर मिलते है एक नई रचना के साथ ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.



Monday 30 July 2018

अनजाना राही

अनजाना राही

Hindi Kavita

नमस्कार मित्रों । अनूप शर्मा की कविताओं को आपने इतना पसंद  किया उसके लिए धन्यवाद । आज फिर एक बार उनकी एक नई रचना "अनजाना राही" आपके लिए प्रस्तुत है । आशा है इस कविता को भी आप अपना पूर्ण स्नेह देंगे ।




अनजाना राही

Hindi Kavita


एक रोज यूं हुआ,
मैं बैठा हुआ,
कुछ सोच रहा था
कुछ बुन रहा था

मेरे विचारों को,
उसके ख़यालो को,
कभी लिखता रहा,
कभी मिटाता रहा

ख़ुदा से की बड़ी अर्जी,
उसकी हुई मर्जी,
वो आया सामने,
लगा मैं कांपने

इतनी खुशी हुई,
बर्दास्त ना हुई,
जैसे ही वो रुका,
मेरा वक्त थम गया ।

वो देख रहा सबको,
मैं देख रहा उसको,
वो ढूंढ रहा किसी को,
मैं पा रहा उसको ।

मंजिल का राही था,
कुछ थका थका सा था,
कही दूर से आया था,
कही दूर जाना था

मैंने कहा आओ,
कुछ देर रुक जाओ,
जरा अपनी बतियाओ,
कुछ मेरी सुन जाओ

कहने लगा मुझ से,
क्या वास्ता तुझ से,
मैंने कहा उस से,
है जिंदगी तुम से

वो सोचता रहा,
मैंं निहारता रहा,
वो खो सा गया,
मुझमें मिल सा गया

कुछ यूं हुआ असर,
उसकी झुकी नजर,
रही कोई ना कसर,
मुझमे उठी लहर

वो मुस्कुरा गया,
मैं रो सा गया,
उसे मैं मिल गया,
मुझे सब मिल गया

यकायक कुछ हुुुआ ऐसा,
सोचा नही जैसा,
वो चौंक कर जागा,
मुझसे दूर यूं भागा

उसे याद आ गया,
जो मैं भुला गया,
वो सहम सा गया,
सब उजड़ सा गया

उसको तो है चलना,
नही राह में रुकना,
हर हाल में बचना,
मंजिल को है पाना

वो चलता रहा,
मैं रोकता रहा,
वो खामोश सा रहा,
मैं बोलता रहा

वो रुक ना सका,
मैं चल ना सका
वो फिर आ ना सका,
मैं उसे पा ना सका

मेरे विचार थे,
उसके खयाल थे
सब साफ हो गये,
इतिहास बन गये ।।

******


Please read;

Chahat

Shubh Yatra



जय हिंद

*अनूप शर्मा की रचना*

















आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा



Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.


Monday 9 July 2018

कहाँ तुम चले गए

कहाँ तुम चले गए


नमस्कार दोस्तों । अनूप शर्मा की रचना "चाहत" को आपने इतनी चाहत दी, इसलिए उनकी एक और शानदार रचना पेश है और वो भी बिना किसी भूमिका के । अब आप ही बताइएगा कि कवि अपनी इस कविता के माध्यम से अपनी कौनसी मार्मिक पीड़ा बयान कर रहा है ।



कहाँ तुम चले गए



अरे तुम कहा हो
कहाँ गये
अभी तो यहीं थे
मेरे साथ
बाजू में ही तो थे

हाँ तुम ही
जिसे मैं बहुत चाहता हुँ
जिसकी परवाह करता हूँ

जिसकी खुशी में
मैं भी खुश हो जाता हूँ
जिसे हंसाने को
नए बहाने ढूंढता हुँ
जानबूझकर
नादानियां करता हूँ

चुपके से
रोता हूँ
जब तुम बीमार होते हो
सामने तेरे
हंसता हुआ रहता हूँ

कि यह तो कुछ नही
तू जो साथ है
सब ठीक ही तो है
बतियाता हूँ नींद में भी
कि सुनता रहूँ रात भर
तेरी आवाज

तू ही तो है
जिससे मैं हूँ
वरना
यहाँ कौन है मेरा
पर तुम चुप क्यों हो
बतियाते क्यो नही



सुनो
कुछ कह रहा हूँ मैं
चिल्ला रहा हूँ मैं
देखो
मेरी आँखों मे
रो रहा हूँ मैं

आंखे जल रही है
दिमाग सुन्न है
कुछ समझ नही पा रहा हूँ
घबरा रहा हूँ मैं

तुम सच मे चले गए
अकेले
बिना मेरे
पर तुम तो
बाजार भी नही जाते थे अकेले
बिना मुझसे कहे

फिर इतनी दूर
जहाँ आवाज भी ना पहुंचे
ऐसे रास्ते पर
जिसका कोई निशान नही
जहाँ से कोई वापिस नही आता

जाना ही था
तो मुझे भी ले चलते
बिना तेरे
यहाँ कुछ भी नही

किससे बतियाऊंगा
किसे हंसाउंगा
किसे संवारूँगा
किसे मनाऊंगा

अरे तुम कहाँ हो
कहाँ गए
अभी तो यहीं थे
मेरे साथ!!

चाहत


** ** ** **

अपने कमेंट्स के द्वारा अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें मित्रों, ताकि हमें भविष्य में भी अनूप शर्मा की ऐसी रचनाएं मिलती रहे और हम उसका लुत्फ उठाते रहें ।

जय हिंद

*अनूप शर्मा की रचना**











आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा



Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright


Sunday 1 July 2018

काळू और सिनेमा

काळू और सिनेमा


नमस्कार दोस्तों । काळू याद है ना । जी हां, वही काळू, हँसमुख और मजाकिया । उसे कैसे भूल सकते हैं । वो, उसकी शरारतें और उसकी बातें..... थी ही इतनी मीठी मजेदार कि भुलाए नहीं भूलती । इसीलिए आज मैं आपको काळू के एक और खास शौक और कारनामे के बारे में बताऊंगा ।

काळू को सिनेमा देखने का बहूत शौक था । अपनी पसंदीदा हर फिल्म वो देख ही लेता था । उसमें एक और खास बात ये थी कि वो फ़िल्म देख भी आता था और घर पर पता भी नहीं चलने देता था । उस वक्त सिनेमा छुप छुपकर देखनी पड़ती थी, क्योंकि उस जमाने और उस उम्र में सिनेमा देखने की घरवालों की तरफ से बिल्कुल इजाजत नहीं मिलती थी ।

फिर भी काळू तो काळू था, एक नम्बर बाजीगर । ये बाजीगरी वो कैसे कर जाता था ये भी आपको आगे पढ़ते पढ़ते पता चल जाएगा कि काळू क्या चीज था ।

काळू पहले से अखबार में हर नई रिलीज होने वाली फिल्म के बारे में देख पढ़कर ही निश्चय कर लेता था कि कौनसी फ़िल्म देखनी है और कौनसी नहीं । क्योंकि एक तो रिस्क लेनी पड़ती थी और दूसरे पैसे भी तो इतने नहीं होते थे  कि अंधाधुंध खर्च किये जायें । पैसे तो मौके बेमौके खर्च के लिए कभी कभार मिलने वाले पैसों में से ही बचाकर (और छुपाकर भी) रखने होते थे ।

वैसे कोई भी सिनेमा हमारे कस्बे में तो रिलीज होने के कुछ महीनों बाद ही आती थी, परंतु हमारे लिए तो वो नई नई ही होती थी । क्योंकि हमारे कस्बे के सिनेमाघर में अब आई है इसलिए हमारे लिए वो ताज़ा ताजा ही रिलीज हुई ना ।

कॉलेज के दिनों की बात है, उस वक्त एक फ़िल्म काफी चर्चा में थी और रेडियो तथा अखबारों के जरिये उस फिल्म का प्रचार प्रसार भी काफी हो चुका था । काळू उस फिल्म को देखने को बड़ा बेताब था कि कब ये फ़िल्म हमारे सिनेमाघर में लगे और कब मैं इसे देखूं ।

खैर कुछ दिनों बाद काळू की इच्छा पूरी हुई जब मोहल्ले में माइक लगा हुआ चिरपरिचित तांगा आया ।

उस वक्त किसी भी तरह के प्रचार प्रसार का साधन वो तांगा हुआ करता था । चाहे कस्बे या पास के किसी गांव में कोई खास आयोजन का प्रचार हो, चुनाव प्रचार हो या किसी फ़िल्म का प्रचार।

तांगे के दोनों और संबंधित प्रचार के पोस्टर लगे होते थे और आगे एक बड़ा सा माइक, उस में टांग पर टांग धरे, राजसी अंदाज में, एक उद्घोषक बैठा होता था, और बड़े सधे हुए नपेतुले अंदाज में बहुत ही मनोरंजक तरीके से बोलता था । शायद उसको उसकी इस खासियत का, इस अदाकारी का अच्छाखासा मेहनताना मिलता था ।

"सुनिए, सुनिए, सुनिए..... मुम्बई (उस वक्त की बम्बई) दिल्ली और कलकत्ता में....... खूब धूम मचाने के बाद..... अब अगले सप्ताह से आपके अपने शहर में धूम मचाने आ रही है.... शानदार जानदार सिनेमा .....--- -- .... जो दर्शकों की भारी मांग पर शहर के दोनों सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी...... जी हां......  देखना ना भूलें.... अगर ये फ़िल्म नहीं देखी तो समझो कुछ नहीं देखा ....... आप भी देखें और अपने परिवार को भी दिखाएं ।" वो बार बार ये उद्घोष कर रहा था ।

इधर इस सूचना ने तो काळू की तो जैसे नींद ही उड़ा दी थी । वो उसी वक्त से योजनाएं बनाने में लग गया कि कैसे पहले दिन पहला शो देखूं । इस फ़िल्म के लिए उसने पैसे भीबचाकर रखे थे, तकरीबन सात आठ रुपये थे ।

युं तो उस वक्त सभी करों के साथ टिकट केवल अढ़ाई रुपये की ही थी, लेकिन कस्बे में तब कोई अग्रिम बुकिंग या कतार में लग कर टिकट लेने वाली व्यवस्था तो थी नहीं । उस वक्त तो जैसे ही टिकट खिड़की खुलती लोग टूट पड़ते थे फ़िल्म की टिकट पाने के लिए ।

पसीने से लथपथ उस भीड़ को चीर चार कर जब कोई मुट्ठी में फ़िल्म की टिकट लेकर आता था तो उस वक्त उसके चेहरे के हावभाव ऐसे दिखते थे जैसे कोई शूरवीर प्रतापी जांबाज कोई जंग जीत कर आया हो ।




ये एक बात हम कभी नहीं समझ पाए थे कि उन टिकट ब्लैक करने वालों को पंद्रह बीस टिकट कैसे मिल जाया करती थी । जबकि टिकट खिड़की पर तो अधिकतम चार टिकट का ही प्रावधान था । और उन चार टिकटों के लिए भी दांतों तले पसीना आ जाता था ।

अक्सर इस धक्कामुक्की से बचने हेतु लोग, और हम भी, वो अढ़ाई रुपये वाली टिकट तीन या चार रुपये में ब्लैकियों से खरीद कर ही फ़िल्म देखा करते थे ।

यही वजह थी कि काळू ने पहले से आठ नौ रुपये जमा कर लिए थे । भई सुपर हिट फिल्म थी और यदि ब्लैक में टिकट खरीदनी पड़ी तो पता नहीं कितना पैसा लगेगा ।

एक हफ्ता गुजरा । उस दिन रविवार था, और उस फ़िल्म का पहला शो भी, जो दोपहर एक बजे होना था । काळू ने योजना बना ली थी, वही.... जिसमें उसे महारत हासिल थी, कि घर में किसी को पता भी ना चले और वो फ़िल्म भी देख आये । चूंकि अपनी इस योजना को वो पहले भी कई बार सफलता पूर्वक अंजाम दे चुका था इसलिए हौसला तो बुलंद था ही ।

काळू के घर से सिनेमा हॉल ज्यादा दूर नहीं था । अगर तेज कदमों से चलके कोई जाए तो लगभग छह से सात मिनट लगे । और काळू की चाल तो तब और भी तेज हो जाती थी यदि वो सिनेमा देखने जा रहा हो ।

काळू के लिए दूसरा वरदान ये था कि उसने अपने पढ़ने और आराम करने के लिए घर में बाहर वाला कमरा चुन रखा था ।

(ये तो हमें बाद में पता चला कि उसने वो कमरा ही क्यों चुना था ।)

उस कमरे में दो दरवाजे थे, एक घर के आंगन की तरफ खुलता था और दूसरा बाहर, घर के मुख्य दरवाजे के पास ।

उस वक्त करीब 11 बजने वाले थे । पिताजी दुकान गए हुए थे और माँ दुबारा खाना बना रही थी । पहले उसने पिताजी के लिए बनाया था और दोपहर के खाने के लिए टिफिन बनाकर पिताजी को दिया था ।

काळू अपने कमरे में बैठा क़िताबों पर जिल्द चढ़ा रहा था । तभी माँ की आवाज आई । वो उसे खाना खाने को बुला रही थी । काळू ने बड़े आराम से खाना खाया । फिर माँ ने जब तक खाना खाया तब तक करीब सवा बारह बज चुके थे ।

माँ रसोई में अन्य काम कर रही थी तब तक काळू बाहर बरामदे में ही बैठा माँ से बतिया रहा था । साढ़े बारह बजे तक माँ ने काम सलटा लिया और कुछ देर वो भी बरामदे में आ के बैठ गयी । गर्मी काफी थी ।

लगभग 12 बजकर 35 मिनट पर काळू उठा और माँ से कहा कि वो सोने जा रहा है । माँ ने भी कहा कि जा थोड़ा आराम करले, मैं भी थोड़ा आराम करूंगी ।

माँ अपने कमरे में चली गयी और काळू अपने कमरे में । माँ को सुनाते हुए उसने आंगन की तरफ वाले कमरे की चिटखनी आवाज के साथ लगाई ।

दस मिनट बाद उसने बाहर वाला दरवाजा धीरे से खोला और कान लगाकर कुछ सुनने की चेष्टा करने लगा । माँ के खर्राटे स्पष्ट सुनाई दे रहे थे । यही तो वो सुनना चाहता था । अब पूर्ण तसल्ली थी कि माँ को नींद आ गयी है और वो जनता था कि कम से कम चार बजे तक तो माँ सोएगी । फिर धीरे से दरवाजे को बाहर से खींच कर, बिना आवाज किये, बंद किया । और ये जा वो जा........ ।

भीषण गर्मी के बावजूद भी उसने सीधा सिनेमाहॉल पहुंच कर ही दम लिया । ब्लैकियों से थोड़ा मोलभाव करके साढ़े पांच रुपये में टिकट खरीदी और फ़िल्म शुरू होने से पहले काळू थिएटर के अंदर । काळू का प्लान आज भी काम कर रहा था ।

एक और खासियत भी थी उसमें की किसी भी फ़िल्म में इंटरवल कब होना है, ये उसे अंदाजा हो जाता था । इंटरवल भी उसकी योजना का एक हिस्सा जो होता था । "उस दिन भी" मध्यान्तर से ठीक पांच मिनट पहले वो उठा, हॉल से बाहर निकला, और तेजी से चल पड़ा वापस अपने घर की तरफ ।

(आप क्या सोच रहे हैं । उसने फ़िल्म आधी ही देखी । अरे नहीं जनाब.... कयास मत लगाइए, आगे आगे देखिए काळू की करामातें, जो जरा हटकर ही होती थी.... अजीबोगरीब)

ठीक छह मिनट बाद काळू घर पर था और खटपट की आवाज के साथ मटके से पानी का लोटा भर रहा था ।

योजनानुसार खुद ने पानी पी कर माँ को भी पानी के लिए पूछा । (जबकि उसे मालूम था कि माँ पानी का जग अपने पास रख कर ही सोती है) उसे तो बस माँ को ये जताना था कि वो घर पर ही है । अंदर से उनींदी आवाज में माँ से "नहीं चाहिए" सुनकर फिर वो कमरे में आया । अंदर वाला दरवाजा अंदर से बंद किया और बाहर वाले दरवाजे से फिर से छू...... ।

मध्यान्तर (इंटरवल) के बाद फ़िल्म शुरू हो कर करीब एक आध मिनट ही हुई होगी और वो वापस थिएटर में अपनी सीट पर था ।

मजे से पूरी फिल्म देख कर सवा चार बजे वो वापस घर पर अपने कमरे में था । और हमेशा की तरह ठीक साढ़े चार बजे मां ने दरवाजा खटखटाया तो दरवाजा खोलते समय हमारे काळू के चेहरे से बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे वो अभी अभी नींद से जगा हो ।

माँ ने लाड़ से उस के माथे को पुचकार कर कहा, आजा बेटा, चाय पीते हैं ।

        ** ** ** **

शीघ्र ही फिर मिलते हैं दोस्तों । इस बार फिर अनूप शर्मा की एक और शानदार रचना के साथ, आखिर उनकी "चाहत" को आपने इतना पसंद जो किया था ।


काळू 

काळू का दूसरा रूप



जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*









आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.

Sunday 17 June 2018

Chahat - चाहत

चाहत


नमस्कार मित्रों ।

इस बार एक छोटी सी, मगर थोड़े से शब्दों में पूरी जिंदगी का सार लिए एक कविता "चाहत" आपके लिए । जो लिखी है राजस्थान के नागौर जिले के एक छोटे से गांव धौलिया निवासी मेरे भांजे अनूप शर्मा ने ।

वर्तमान में अनूप अपने गांव के पास के ही एक शहर में बैंक में कार्यरत है । अगर आपको उनकी ये रचना पसंद आई, जो कि मैं जानता हूं कि आएगी, तो मैं आपसे वादा करता हुं कि आगे भी उनकी कविताएं आपको यहां hindegeneralblogs पर समय समय पर मिलती रहेगी । कृपया दिल से अनूप शर्मा का स्वागत करें और उनका हौसला बढ़ाएं ।

शिव शर्मा

लीजिये, अनूप शर्मा की कविता, अच्छी लगे तो लेखक का हौसला बढ़ाएं ।

चाहत


एक जवान काबिल शख्स
चाहता है
सब कुछ पा लेना
परिवार के लिए

लगा देता है दांव पर
सर्वस्व अपना

ताकि कर सके
बिटिया की शादी
एक बड़े घर मे

भेज सके
बेटे को विदेश
एक बड़ी नौकरी पर

बना सके
शहर के बीचों बीच
एक बड़ा सा मकान,

अपनी मेहनत से
एक दिन
जब पहुंचता है
ऐसे मुकाम पर
सोचता है, देखता है
और पाता है

कि कर लिया हासिल..
वो सब कुछ...
जो वह चाहता है...

वाकई....!!

वक्त चलता रहता है
बदलता रहता है
उम्र भी ढलती है

ढलती उम्र के साथ
हाथो का कंपन
बढ़ने लगता है

आंखे भी
कहाँ देख पाती है
अब ठीक से....

सुनना तो पहले ही
कम हो चुका है...

कोशिश करता है
चलने की
मगर पैर
साथ नही देते....

पर वो
तनिक भी
चिंतित नही होता

सोचता है
बड़े घर की बिटिया
दौड़ी चली आएगी

अरे नही.....

वो कैसे आएगी
वो अब
बिटिया नही
बहु बन चुकी है
एक बड़े घर की

तो क्या हुआ....
लड़का तो है

"मेरा विदेशी बाबू"

वो तो आएगा ही
उसी के लिए तो किया था
सब कुछ.....
बिना छुट्टी लिए काम से

पर वो भी नही आया

छुट्टी जो नही मिली

बूढ़े बाप की खातिर

फिर जब बड़े मकान का
छोटा सा कमरा
खाने को दौड़ता है

दीवारों पर
बेटे बेटी के अक्स उभरते हैं
तब शायद
यही सोचता है

कि

क्या कर लिया हासिल ?
वो सब कुछ ??
जो वह चाहता था ???


इश्क दा रोग



      ** ** **

अनूप शर्मा की रचना


आपको ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद
शिव शर्मा



Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright



Saturday 9 June 2018

लोग - Log

लोग


नमस्कार मित्रों । इस बार एक छोटी सी ग़ज़ल ले के आया हुं । उम्मीद है आपको जरूर पसंद आएगी । अपने विचार मेरे साथ जरूर साझा करें ।







लोग


दुनिया में आते हैं, चले जाते हैं लोग,
फिर किस बात पर इतराते हैं लोग,

छोटी सी जिंदगी है खुशी से जी लें
ताउम्र समझ ना पाते हैं लोग,

होकर कामयाबी के नशे में धुत्त
अपनों को भूल जाते हैं लोग,

ख्वाहिशें है कि इनकी खत्म ही नहीं होती
क्यों नहीं दिल को समझाते हैं लोग,

कौन डाकू है और कौन लुटेरा
आपस मे ही बताते हैं लोग,

खुद का दामन भले ही मैला हो
औरों के दाग दिखाते हैं लोग,

मक्कारी, बेईमानी, झूठ, फरेब,
कितने पाप कमाते हैं लोग,

जान बूझकर करते हैं खतायें हजारों
फिर अपने गुनाह बख्शवाते हैं लोग,

बात अगर उनके मन की ना हो तो
बगावत पे उतर आते हैं लोग,

नाहक ही करते हैं लोगों से नफ़रतें
जब सियासत में फंस जाते हैं लोग,

अमीरों की चौखट पे करते हैं सजदे
गरीबों को अक्सर सताते हैं लोग,

सबकी नजरों से छुपाके रखना "शिव"
मजबूरियों का फायदा उठाते हैं लोग ।।

** ** ** **

जल्दी ही फिर मिलते हैं मित्रों एक नई रचना के साथ ।

 जनम जनम का साथ


जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.








Thursday 17 May 2018

Bachpan Ki Baate - Part - 2

बचपन की बातें (भाग 2)


वाह..... आनंद आ गया । भाग 1 आपने इतना पसंद किया उसके लिए धन्यवाद मित्रों । लीजिये ... बिना किसी भूमिका, बिना किसी लाग लपेट के बचपन की बातें का भाग 2 हाजिर है ।

बचपन में कहीं भी किसी भी राज्य, या ये कहुं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी देश में, बच्चे लगभग सब एक जैसी ही शरारतें करते हैं ।

मैनें यहां, नाइजीरिया में, ऑफिस में काम करने वाले एक नाइजीरियन लड़के को, जो उस वक्त खाने के लिए संतरा छील रहा था,और संतरे के छिलके को देख कर मुझे अपने बचपन की शरारत याद आ गयी, तो युं ही मैनें उस लड़के से पूछ लिया ।

उसने हंसते हुए बताया कि वे लोग भी बचपन में हमारी तरह संतरे के छिलके के रस को शरारत से एक दूसरे की आंखों में डालकर सामने वाले कि आंखों के जलने का आनंद लेते थे । शायद आप सबने भी ये शरारत निश्चित ही की होगी ।

मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि वो जब कभी च्युइंगम खाता था तो शुरू शुरू में मिठास देने के बाद च्युइंगम फीकी हो जाती थी । जैसा कि च्युइंगम का स्वभाव है ।

अब पापा से पैसे इतने ही मिलते थे कि हम एक ही च्युइंगम अफ़्फोर्ड कर सकते थे । तो पूरा पैसा वसूल करने हेतु उसी फीकी  च्युइंगम में, घर आके, च्युइंगम हथेली पर रखकर उसे गोल गोल करके उसमें थोड़ी सी चीनी मिलाते और फिर गपाक से खा जाते ।

ये मैनें भी किया था, जब पूछा तो साथ मे बैठे अन्य मित्रों ने भी हामी भरी, और मैं जानता हूं कि..... आपने भी ।

मुझे याद है जब गांव कस्बे में रामलीला का मंचन हुआ करता था । उस वक्त पूरा कस्बा राममय हो जाया करता था । बच्चों पर उसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिखता था । हर घर में बच्चे राम, लक्ष्मण, हनुमान बने घूमते थे । उस समय आज की तरह कोई मोबाइल कम्प्यूटर या तरह तरह के खिलौने तो थे नहीं । अतः इस तरह के क्रिया कलाप ही मनोरंजन का साधन हुआ करते थे ।

हम खुद ही कारीगर होते थे । किसी पेड़ की लचीली टहनी को मोड़ कर उस पर रस्सी बांध लेते और बन जाता श्रीराम का धनुष । कभी किसी हल्की सख्त टहनी पर रस्सी बांध कर ऐसा महसूस करते थे जैसे हम भी श्रीराम के जैसे ही बलशाली हों ।

झाड़ू के तिनके के तीर बन जाते थे । माँ, दादी आश्चर्य करती कि कल झाड़ू इतनी मोटी थी आज पतली कैसे हो गई । वो तो बाद में पता चलता कि आज राम रावण युद्ध था और बेटा "राम" बना था । एवं झाड़ू वाले तिनकों के तीरों से उसने मेघनाद, कुम्भकर्ण और रावण आदि का वध किया था ।

हालांकि इस खेल में दुर्घटनावश अक्सर कोई ना कोई घायल भी हो जाता था । जोश जोश में गलती से तिनके वाला तीर रावण बने अपने ही मित्र को लग जाता ।

ये समस्या तो अक्सर होती थी कि हर कोई राम बनना चाहता था, खैर....इस समस्या का समाधान भी बाद में किरदारों के नामों की पर्चियों से हुआ करता था । तय हो जाता कि जिसके हाथ में जो पर्ची आएगी, वो आज उसी किरदार को निभाएगा । वैसे आज एक अफसोस होता है कि "काश ...... बड़े होकर भी हम राम नहीं तो थोड़ा बहुत राम जैसा बन पाते," ।

बारिश के दिनों में गली में जमा हुए घुटनों घुटनों पानी में किसी पांच सितारा होटल के स्वीमिंग पूल से भी ज्यादा आनंद आया करता था । उस वक्त हम कितने "अमीर" हुआ करते थे, हमारे "जहाज" जो पानी मे चला करते थे ।"




कटी पतंग लूटने के लिए तो बंदर से भी तेज छलांगें मार जाया करते थे । ये अलग बात है कि रात को मां झिड़कियां देते देते घुटनों पर मलहम लगाती और दीदी पैरों में चुभे कांटे निकालती थी ।

बाटा की वो हवाई चप्पल पहनकर कितना इतराते थे । अगर चप्पल नई होती तो खुद से ज्यादा हम चप्पल का ध्यान रखते थे । कभी कभी उस चप्पल के खो जाने पर जो लताड़ मिला करती थी, जिसने खाई है उन्हें याद होगा कि सब कोई अलग अलग क्लास लेते थे । दादा, दादी, पापा, मां, भैया, दीदी । शुकर है कि इन सब वकीलों से नानी बचा ले जाती थी वरना तो ये गैर जमानती जुर्म जैसा वाकया हुआ करता था ।

याद आता है बचपन,

वो साइकिल के पुराने टायरों को हाथों से धकेलते धकेलते बिना थके दूर तक भागते जाना,

वो कुत्ते की दुम में पटाखे बांध कर चला देना,

खाली पीरियड में मास्टरजी की जगह खड़े होकर उन्हीं की नकलें उतारना,

याद आती है दादी नानी की राजा रानी और परियों वाली कहानियां,

वो पापा के कंधों पर चढ़कर आसमान छू लेने की कल्पना करना,

छोटे भाई बहन को चिढाना, आम की गुठली पर अपना हक जताना,

वो पड़ौस वाले अंकल के साइकिल की हवा निकाल देना,

दिवाली की अगली सुबह पूरी गली में बिना फूटे फटाखे ढूंढना....

सब याद आता है ।

सच कहा है कहने वाले ने कि जिंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बचपन ही होता है । जवानी बहुत महंगी पड़ती है, आखिर इसे पाने के लिए हमें अपना बचपन जो खोना पड़ता है ।

नमस्कार दोस्तों । आशा है इसे पढ़कर आप को भी अपना बचपन याद आया होगा । अगर हां... तो मेरा लिखना सार्थक हुआ । अब मैं तो गुरदास मान पाजी का वो गीत सुनूंगा ।

बचपन चला गया,
ते जवानी चली गई,
जिंदगी दी कीमती
निशानी चली गई....... ।

जल्दी ही फिर मुलाकात होगी एक नई रचना के साथ । तब तक विदा मित्रों । अपना और अपनों का खयाल रखना ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*

"Bachpan Ki Baate - Part - 1"












आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.



Saturday 5 May 2018

Bachpan Ki Baate - Part - 1


बचपन की बातें - भाग एक

unsplash-logoPhoto by Himesh Kumar Behera

आज घर पर बैठे शाम को टीवी देख रहे थे । एक सीरियल चल रहा था जिसमें सूत्रधार अपने पुराने दिनों की यादों के बारे में बताते हैं । सीरियल की खास बात तो ये थी कि उसे देखकर कई बार हमें भी ऐसा लगा कि ऐसा दृश्य तो हम भी अपनी आंखों से देख चुके हैं "उन बीते दिनों" । अफसोस तो इस बात का है कि आज की इस भागती दौड़ती जिंदगी में वो दृश्य लगभग लुप्त प्रायः से हो चुके हैं ।

खैर, सीरियल का असर ये हुआ कि उसे देखते देखते हम लोग भी अपने अपने बचपन में, अपनी पुरानी यादों में चले गए । फिर वही हुआ जो दोस्तों की महफ़िल जमने पर होता है । एक दौर शुरू हुआ बचपन की शैतानियों, नादानियों और शरारती किस्सों का ।

कमाल की बात तो ये थी कि प्रायः सभी के किस्से और बचपन की शरारतें लगभग लगभग एक जैसी ही थी, और आपस में मेल खा रही थी । यानि बचपन शायद सबका एकसा ही होता है ।



वे बिना सिर पैर की बातें भी कम से कम दो अढ़ाई घंटे तक चली थी । पर राज की बात बताऊं, मन प्रफुल्लित और हल्का हल्का हो गया था, उन यादों को याद करके ।  बहुत आनंद आया । कई बार तो लगा कि जैसे हम फिर से बच्चे ही बन गए थे ।

आप भी जानते हो कि उन दिनों (बचपन के) जब हम स्कूल से निकलते थे । सब भूल भाल जाते थे कि आज किस विषय के मास्टरजी ने क्या क्या होमवर्क दिया है ।

और तो और... गणित का होमवर्क अधूरा होने की वजह से तीसरे पीरियड के दौरान पूरी देर मुर्गा बने थे, और मारे दर्द के, कम से कम दो लीटर आंसू बहाए थे, वो मंजर भी दिमाग से साफ हो जाता था ।

फिर तो बस घर, और स्कूल जाते समय मित्रों के साथ सुबह बनाये हुए खेल कूद के "पिरोगराम" ही दिमाग मे रहते थे ।

मुझे याद है मेरे एक मित्र मदन, और भूगोल के मास्टरजी, की तो जैसे दिनचर्या में ही शामिल था । मदन रोज उनसे मार खाया करता था, क्योंकि जब तक मदन को उनकी दो चार बेंत नहीं पड़ती थी तब तक उसको भारत के नक्शे में दिल्ली दिखती ही नहीं थी । और इधर जैसे ही सटाक से हाथ पर बेंत की दो पड़ती उधर मदन को भोपाल और मद्रास भी दिख जाते थे । बाबूलाल तो अक्सर सौ गुणा दस का जवाब दस हजार बताया करता था ।

इस बात पर तो निश्चित ही आप भी हामी भरोगे कि स्कूल से घर आते ही थकावट की बजाय एक नई ऊर्जा का संचार शरीर में हो जाता था । सुबह जिस यूनिफार्म को पहनने में दस मिनट लगते थे वो शाम को दो मिनट में ही खुल जाया करती और साथ ही शरीर पर घर मे पहनने वाले वस्त्र धारण हो जाया करते थे । अगली पांच मिनट में रसोई में ही बैठकर माँ की डांट के साथ साथ मशीनी अंदाज में दो रोटियां भी खा लेते, उसके बाद तो ये जा वो जा ।

फिर कंचे, खो खो, कबड्डी या छुपम छुपाई जैसे खेल खेलते खेलते कब शाम गहरा जाया करती थी पता ही नहीं चलता था, और हम धूल भरे कपड़ों और बदन को झाड़ते हुए "कुछ साफ सुथरे" से बन कर बड़े भैया या पिताजी के घर आने से पहले घर पर आ जाते ।




मगर ये चीज उस वक्त किसी को भी कभी भी समझ में नहीं आ पाई कि भरपूर सावधानी बरतने के बावजूद भी पिताजी को कैसे पता चल जाता था कि आज हमने क्या क्या कारस्तानियां की है, किसको पीटा, किससे पिटे । किसके घर की डोरबेल बजाकर भाग गए थे । किसकी साइकिल की हवा निकाल दी थी, वगैरह वगैरह ।

शामत तो तब आती थी जब हमारे द्वारा किये गए कारनामों की लंबी सी फेहरिश्त के साथ सवाल पर सवाल आते । उस वक्त पिताजी के सामने सर झुकाए संसार के सबसे मासूम बच्चे हम ही हुआ करते थे । और क्या कमाल के घड़ियाली आंसू बहते थे अपनी आंखों से ।

हमारी उस मासूमियत पर अक्सर माँ का दिल पसीज जाया करता था और वो हमें पिताजी की अदालत से "चेतावनी के साथ" बाइज्जत बरी करवा देती थी । कभी कभी तो हमें लगता था कि अगर आज माँ नहीं बचाती तो पिताजी सच में ही घर से निकाल देते ।

बाद में हम मन ही मन ये ठाना करते थे कि कल से ऐसा बिल्कुल ही नही करेंगे । मगर रात भर की सुकून भरी सुहानी नींद सब कुछ भुलवा देती और अगले दिन अपनी वही दिनचर्या हुआ करती थी ।

एक और बात, साइकिल सीखने के लिए मेरे खयाल से सभी ने अपने घुटने जरूर फूडवाये होंगे । ऊंचाई से चली साइकिल आके गली में लगे बिजली के खंभे से धड़ाम से टकराती थी और हम गिर के फिर से बहादुर सिपाही की तरह उठकर वही कारनामा दोहराते थे । ये अलग बात थी कि बाद में कुछ दिनों के लिये भैया "साइकिल छूने पर भी" पाबंदी लगा दिया करते थे ।

आज बातें करते करते हमारे एक मित्र ने अपने बचपन का एक बड़ा मजेदार किस्सा सुनाया कि एक बार वो बाजू वाले दूसरे मोहल्ले के किसी विवाह समारोह में बिना बुलाये ही घुस गया था, गुलाबजामुन और रसगुल्ले उड़ाने के लालच में । लड़की के पिता ने उसे बादाम की बर्फी पर हाथ साफ करते वक्त रंगे हाथों पकड़ लिया था । फिर तो बेचारा रात को दस बजे तक पानी का जग हाथ में लिए बारातियों को घूम घूम के पानी पिला रहा था । घर आने पर पुरस्कार स्वरूप पिताजी के फटके पड़े थे वो अलग । बस संतुष्ठी इस बात की थी कि पकड़े जाने से पहले जी भर के शरबत, जलेबियां, गुलाबजामुन और बरफी गटका चुके थे ।

*क्षमा चाहूंगा मित्रों, बातें ज्यादा है और जगह कम, इसलिए "बचपन की बातें" हम दो पार्ट में करेंगे । भाग 2 में आपके लिए मैं लाऊंगा कुछ अपने और कुछ जो आज पता चले उन मित्रों के किस्से..... जो आपको गुदगुदाएंगे, हसाएंगे और ले जाएंगे आपको अपने बचपन में । बहुत जल्द बचपन की बातें का भाग 2 लेकर आ रहा हुं तब तक के लिए विदा मित्रों ।*

जय हिंद

Utsav Ki Vela


*शिव शर्मा की कलम से*










आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद

Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.


Monday 9 April 2018

Maa O Maa - माँ ओ माँ


माँ ओ माँ



नमस्कार मित्रों । होम लोन के भाग 1 और भाग 2 दोनों को आपने भरपूर सराहा । आप सभी का आभार व्यक्त करता हुं ।

आज आपके लिए एक कविता लेकर आया हुं, कैसी है ये तो आप ही बताएंगे, लेकिन विषय वाकई बहुत सुंदर है "माँ" । इस विषय पर, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, कि जितना भी लिखो, कम है । इसकी सीमाएं अनंत है ।

मैनें कहीं ये खूबसूरत पंक्तियां पढ़ी थी कि "एक दिन सारी दुनिया तुम्हारी फ़िकर करना छोड़ देगी, लेकिन मां कभी नहीं ।" सच है कि बच्चे कितने भी बड़े क्यों ना हो जाये, माँ फ़िकर करना नहीं छोड़ती ।

माँ ओ माँ कविता आपको कैसी लगी जरूर बताएं ।

माँ ओ माँ


सबसे निश्छल सबसे पावन
इस संसार में मां
ईश्वर से भी लड़ जाती
संतान के प्यार में मां

बच्चों को आँचल ओढाती
उंगली पकड़ कर चलना सिखाती
पहली गुरु यही होती है
भले बुरे की सीख पढ़ाती
बहुत कीमती होती है
अपने परिवार में मां
नजर आ ही जाती है
बच्चों के संस्कार में मां



जल्दी जल्दी हाथ चलाती
सबको खिलाकर ही खुद खाती
बेटा बेटी फर्क ना करती
ममता सब पर खूब लुटाती
स्नेह बराबर मिलाके देती
अपने दुलार में मां
कमी नहीं आने देती है
अपने प्यार में मां

बेटे बेटी बड़े हो गए
अपने पैरों खड़े हो गए
सुबह को दोनों काम पे जाते
जब तक वापस घर नहीं आते
बार बार दरवाजा तकती
इंतजार में मां
मनभावन पकवान खिलाती
हर इतवार में मां

हर मैया की अलग कहानी
कोई नहीं है इसका सानी
कौशल्या हो या हो यशोदा
ममता इनको भी थी पानी
इसीलिए प्रभु ने भी ढूंढी
हर अवतार में मां
चांदनी जैसी शीतल निर्मल
है संसार में मां

सबसे निश्छल सबसे पावन
इस संसार में मां
ईश्वर से भी लड़ जाती
संतान के प्यार में मां ।।

    **    **    **


Click here to read "मां, एक पूरी दुनिया" 


जल्दी ही फिर मिलते हैं दोस्तों एक नई रचना के साथ ।

जय हिंद

*शिव शर्मा की कलम से*








आपको मेरी ये रचना कैसी लगी दोस्तों । मैं आपको भी आमंत्रित करता हुं कि अगर आपके पास भी कोई आपकी अपनी स्वरचित कहानी, कविता, ग़ज़ल या निजी अनुभवों पर आधारित रचनायें हो तो हमें भेजें । हम उसे हमारे इस पेज पर सहर्ष प्रकाशित करेंगे ।.  Email : onlineprds@gmail.com

धन्यवाद


Note : Images and videos published in this Blog is not owned by us.  We do not hold the copyright.