Saturday 5 May 2018

Bachpan Ki Baate - Part - 1


बचपन की बातें - भाग एक

unsplash-logoPhoto by Himesh Kumar Behera

आज घर पर बैठे शाम को टीवी देख रहे थे । एक सीरियल चल रहा था जिसमें सूत्रधार अपने पुराने दिनों की यादों के बारे में बताते हैं । सीरियल की खास बात तो ये थी कि उसे देखकर कई बार हमें भी ऐसा लगा कि ऐसा दृश्य तो हम भी अपनी आंखों से देख चुके हैं "उन बीते दिनों" । अफसोस तो इस बात का है कि आज की इस भागती दौड़ती जिंदगी में वो दृश्य लगभग लुप्त प्रायः से हो चुके हैं ।

खैर, सीरियल का असर ये हुआ कि उसे देखते देखते हम लोग भी अपने अपने बचपन में, अपनी पुरानी यादों में चले गए । फिर वही हुआ जो दोस्तों की महफ़िल जमने पर होता है । एक दौर शुरू हुआ बचपन की शैतानियों, नादानियों और शरारती किस्सों का ।

कमाल की बात तो ये थी कि प्रायः सभी के किस्से और बचपन की शरारतें लगभग लगभग एक जैसी ही थी, और आपस में मेल खा रही थी । यानि बचपन शायद सबका एकसा ही होता है ।



वे बिना सिर पैर की बातें भी कम से कम दो अढ़ाई घंटे तक चली थी । पर राज की बात बताऊं, मन प्रफुल्लित और हल्का हल्का हो गया था, उन यादों को याद करके ।  बहुत आनंद आया । कई बार तो लगा कि जैसे हम फिर से बच्चे ही बन गए थे ।

आप भी जानते हो कि उन दिनों (बचपन के) जब हम स्कूल से निकलते थे । सब भूल भाल जाते थे कि आज किस विषय के मास्टरजी ने क्या क्या होमवर्क दिया है ।

और तो और... गणित का होमवर्क अधूरा होने की वजह से तीसरे पीरियड के दौरान पूरी देर मुर्गा बने थे, और मारे दर्द के, कम से कम दो लीटर आंसू बहाए थे, वो मंजर भी दिमाग से साफ हो जाता था ।

फिर तो बस घर, और स्कूल जाते समय मित्रों के साथ सुबह बनाये हुए खेल कूद के "पिरोगराम" ही दिमाग मे रहते थे ।

मुझे याद है मेरे एक मित्र मदन, और भूगोल के मास्टरजी, की तो जैसे दिनचर्या में ही शामिल था । मदन रोज उनसे मार खाया करता था, क्योंकि जब तक मदन को उनकी दो चार बेंत नहीं पड़ती थी तब तक उसको भारत के नक्शे में दिल्ली दिखती ही नहीं थी । और इधर जैसे ही सटाक से हाथ पर बेंत की दो पड़ती उधर मदन को भोपाल और मद्रास भी दिख जाते थे । बाबूलाल तो अक्सर सौ गुणा दस का जवाब दस हजार बताया करता था ।

इस बात पर तो निश्चित ही आप भी हामी भरोगे कि स्कूल से घर आते ही थकावट की बजाय एक नई ऊर्जा का संचार शरीर में हो जाता था । सुबह जिस यूनिफार्म को पहनने में दस मिनट लगते थे वो शाम को दो मिनट में ही खुल जाया करती और साथ ही शरीर पर घर मे पहनने वाले वस्त्र धारण हो जाया करते थे । अगली पांच मिनट में रसोई में ही बैठकर माँ की डांट के साथ साथ मशीनी अंदाज में दो रोटियां भी खा लेते, उसके बाद तो ये जा वो जा ।

फिर कंचे, खो खो, कबड्डी या छुपम छुपाई जैसे खेल खेलते खेलते कब शाम गहरा जाया करती थी पता ही नहीं चलता था, और हम धूल भरे कपड़ों और बदन को झाड़ते हुए "कुछ साफ सुथरे" से बन कर बड़े भैया या पिताजी के घर आने से पहले घर पर आ जाते ।




मगर ये चीज उस वक्त किसी को भी कभी भी समझ में नहीं आ पाई कि भरपूर सावधानी बरतने के बावजूद भी पिताजी को कैसे पता चल जाता था कि आज हमने क्या क्या कारस्तानियां की है, किसको पीटा, किससे पिटे । किसके घर की डोरबेल बजाकर भाग गए थे । किसकी साइकिल की हवा निकाल दी थी, वगैरह वगैरह ।

शामत तो तब आती थी जब हमारे द्वारा किये गए कारनामों की लंबी सी फेहरिश्त के साथ सवाल पर सवाल आते । उस वक्त पिताजी के सामने सर झुकाए संसार के सबसे मासूम बच्चे हम ही हुआ करते थे । और क्या कमाल के घड़ियाली आंसू बहते थे अपनी आंखों से ।

हमारी उस मासूमियत पर अक्सर माँ का दिल पसीज जाया करता था और वो हमें पिताजी की अदालत से "चेतावनी के साथ" बाइज्जत बरी करवा देती थी । कभी कभी तो हमें लगता था कि अगर आज माँ नहीं बचाती तो पिताजी सच में ही घर से निकाल देते ।

बाद में हम मन ही मन ये ठाना करते थे कि कल से ऐसा बिल्कुल ही नही करेंगे । मगर रात भर की सुकून भरी सुहानी नींद सब कुछ भुलवा देती और अगले दिन अपनी वही दिनचर्या हुआ करती थी ।

एक और बात, साइकिल सीखने के लिए मेरे खयाल से सभी ने अपने घुटने जरूर फूडवाये होंगे । ऊंचाई से चली साइकिल आके गली में लगे बिजली के खंभे से धड़ाम से टकराती थी और हम गिर के फिर से बहादुर सिपाही की तरह उठकर वही कारनामा दोहराते थे । ये अलग बात थी कि बाद में कुछ दिनों के लिये भैया "साइकिल छूने पर भी" पाबंदी लगा दिया करते थे ।

आज बातें करते करते हमारे एक मित्र ने अपने बचपन का एक बड़ा मजेदार किस्सा सुनाया कि एक बार वो बाजू वाले दूसरे मोहल्ले के किसी विवाह समारोह में बिना बुलाये ही घुस गया था, गुलाबजामुन और रसगुल्ले उड़ाने के लालच में । लड़की के पिता ने उसे बादाम की बर्फी पर हाथ साफ करते वक्त रंगे हाथों पकड़ लिया था । फिर तो बेचारा रात को दस बजे तक पानी का जग हाथ में लिए बारातियों को घूम घूम के पानी पिला रहा था । घर आने पर पुरस्कार स्वरूप पिताजी के फटके पड़े थे वो अलग । बस संतुष्ठी इस बात की थी कि पकड़े जाने से पहले जी भर के शरबत, जलेबियां, गुलाबजामुन और बरफी गटका चुके थे ।

*क्षमा चाहूंगा मित्रों, बातें ज्यादा है और जगह कम, इसलिए "बचपन की बातें" हम दो पार्ट में करेंगे । भाग 2 में आपके लिए मैं लाऊंगा कुछ अपने और कुछ जो आज पता चले उन मित्रों के किस्से..... जो आपको गुदगुदाएंगे, हसाएंगे और ले जाएंगे आपको अपने बचपन में । बहुत जल्द बचपन की बातें का भाग 2 लेकर आ रहा हुं तब तक के लिए विदा मित्रों ।*

जय हिंद

Utsav Ki Vela


*शिव शर्मा की कलम से*










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